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सल्लेखनादि अधिकाय सूरिधारणया संघः, सर्वो भवति धारितः । न साधुभिविना संघो, भूरहेरिव काननम् ।।३२७॥ साधुधारणया संघः सर्वो भवति पारितः । न साधुभिविना संघो भूरुहरिव काननम् ॥३२॥ एवं गुणपरीणाम प्रमुखविविधः परः । प्राप्यते वर्तमानेन, समाधिः सिद्धि शर्मणा ॥३२६।।
तीर्थकी अव्युच्छित्ति नामका गुण
धर्मतीर्थको प्रवृत्ति आचार्य आदिके वैयावृत्य से होती है उसमें आचार्य परमेष्ठी के वैयावृत्यका माहात्म्य बताते हैं
आचार्यके धारण करनेसे सर्व संघ धारण किया ऐसा समझना चाहिये, क्योंकि साधुओंके बिना संघ नहीं होता जैसे वृक्षोंके बिना वन नहीं होता है ।।३२७।।
भावार्थ—साधु समुदाय संध कहलाता है और संघका आधार आचार्य है। आचार्यको वैयावृत्य करने से संघका संधारण हो जाता है ऐसा समझना चाहिये ।
उपाध्याय आदि अन्य नव प्रकारके साधुओंके वैयावृत्यका माहात्म्य बतलाते हैं --
साधुजनोंके संधारणसे सर्व संघका संधारण होता है, क्योंकि साधुओंके बिना संघ नहीं होता जैसे वृक्षोंके बिना वन नहीं होता ॥३२८।।
भावार्थ-"न धर्मो धार्मिकविना" इस सूक्तिके अनुसार रत्नत्रय धर्म आचार्य आदि साधुजनों के आधारसे रहता है और रत्नत्रयधारी सदा बने रहना उनका अभाव नहीं होना यही तीर्थकी अव्युच्छित्ति है। आचार्य आदिको वैयावृत्य-सेवा करनेसे वे रत्नत्रयमें स्थिर होते हैं और उससे आगे आगे अन्य व्यक्ति भी दीक्षा शिक्षा द्वारा रत्नत्रय धर्म धारण करते जाते हैं उनको धारा टूटती नहीं। यदि वैयावृत्य न किया जाय तो पुराना साधु सम्यक्त्वादिसे च्युत होगा साथमें नया कोई धर्मधारण नहीं करेगा । अर्थात् साधू जीवनके कष्ट और कोई सहायक नहीं इत्यादि बातोंको देखकर दूसरा कोई नबोन साधु नहीं बन सकेगा।