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मरणकण्डिका जिनाज्ञा पालिता सर्वा, विजित्य गुणहारिणः । कृतं संयमसाहाय्यं कषायेन्द्रियवैरिणः ॥३३०॥ वनं सातिप्रायं दानमचिकित्सा च दशिता । संघस्य कुर्वता कायं, वाक्यं भावयताहताम् ॥३३१॥
समाधि गुण
उपर्युक्त क्रमसे कहे गये गुण परिणाम आदि विविध प्रमुख नव गुणोंके द्वारा सिद्धि सुख में प्रवर्तन रूप समाधि प्राप्त होती है ॥३२९।।
विशेषार्थ-गुण परिणाम, वात्सल्य, श्रद्धा, संधान, भक्ति, पात्र लाभ, तप, पूजा और तीर्थ अव्युच्छित्ति इन नौ गुणोंसे समाधिको सहज सिद्धि हो जाती है। समाधिका अर्थ एकाग्रता है सिद्धिके सुख में एकाग्रता अर्थात् मोक्षसुखको प्राप्त करने में तत्परता होना यह भी वैयावृत्यका एक गुण है । जो कारणमें आदर किया जाता है वह कार्यके आदरका ही सूचक है । कारणोंका संग्रह करनेसे इष्ट कार्य संपन्न होता है। जैसे घट कार्य करना है तो दण्ड, चक्र, चीयर मिट्टी आदिका संग्रह आवश्यक है वैसे ही गुण परिणाम, श्रद्धा, वात्सल्य आदिका संग्रह मोक्षसुखमें एकाग्रता (केवल मोक्षके सुखमें भाव होना अन्य सुखोंमें नहीं) रूप समाधि या धर्मध्यान शुक्लध्यानरूप समाधिमें कारण हैं । इसप्रकार वैयावृत्य करनेसे समाधिगुण प्राप्त होता है । जिनाज्ञा गुण तथा संयम साहाय्य गुण
जो वैयावृत्य करता है वह गुणको नष्ट करनेवाले कषाय और इन्द्रिय रूपी वैरियोंको जीतकर सर्व ही जिनेन्द्र देवकी आज्ञाका पालन करता है तथा संयममें सहायता करता है ऐसा समझना चाहिये ।।३३०॥
भावार्थ-यावृत्य करनेवाला जिनाज्ञाफा पालक इसलिये है कि जिनदेवकी आज्ञा है कि साधु परस्परमें सेवा यात्र त्य करे । तथा जिसकी तैयावृत्य की उस मुनि के संयमकी रक्षा होती है अतः संयम सहाय्य गुण प्रगट होता है ।
दान, निविचिकित्सा, प्रभावना और संघकार्य नामके शेष गुण एक ही कारिका द्वारा कहते हैं---