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सल्लेखनादि अधिकार
एवं गुणाकरी भूतं, वैयावत्यं करोति यः । चलते लोकानाम गोभकारणम् ॥३३२।। लभमानो गुणानेवं यावत्यपरायणः । स्वस्थः संपद्यते साधुः स्वाध्यायोग्रतमानसः ॥३३३॥
___ जो नयाव त्य करता है वह सातिशय दान देता है उसके निबिचिकित्सा होती है, प्रभावना होती है । अर्हन्तदेवके वाक्यको हृदय में भावना करता हुआ संघका कार्य करता है, अर्थात् संघ सम्बन्धी सब कार्य उसने किये जिसने कि बयावृत्य की ||३३१।।
भावार्थ-रत्नत्रयका दान सर्वश्रेष्ठ दान कहलाता है । रुग्ण साधुका वैयावृत्य करनेसे वह रत्नत्रयमें स्थिर होता है अत: वयावृत्य करनेवाला दान देने वाला है । रुग्ण साधुकी सेवा करते समय उसके शरीरका मल दूर करना, फोड़ा फुसो आदि हुए हों उसकी सफाई करना इत्यादि क्रिया ग्लानि दूर किये बिना संभव नहीं अतः जो वयावृत्य करता है वह निविचिकित्साको प्राप्त होता है । संघका प्रमुख कार्य साधुजनों का धर्मपालन है और वह वयावत्य करनेसे होता है अतः संघ कार्य नामका गुण भी इसीसे प्राप्त होता है।
इसप्रकार संपूर्ण गुणोंकी खान स्वरूप वैयावृत्यको जो साधु करता है वह तीन लोकमें क्षोभ करनेवाले तीर्थकर नाम कर्मको प्राप्त करता है अर्थात् उसके तीर्थकर प्रकृतिका बंध होता है जिससे तीसरे भव में तीर्थंकर बन धर्म तीर्थका दिव्य देशना द्वारा प्रवत्तंन करता है ॥३३२॥
जो वैयावृत्य करता है वह उपर्युक्त अठारह गुणोंको प्राप्त करता है और जो केवल स्वाध्यायमें उद्यमशील है वह मात्र अपना कार्य करता है ।।३३३।।
भावार्थ-वैयावृत्य करनेसे मक्ति, वात्सल्य, संवेग आदि गुण इसलिये प्राप्त होते हैं कि अन्य संघस्य साधु समुदाय रत्नत्रय धारण प्रतिपालन उसका संवद्धन आदि में समर्थ तब होता है जब उसे पीड़ा कष्ट न हो । पोड़ाको दूर करने से सब सहज हो जाता है । जो केवल अपना ही स्वाध्याय आदि कार्य करता है उस साधुके अठारह गुण प्राप्त नहीं होते । तथा उस साधुके ऊपर जब आपत्ति आयेगी तब बयावत्य करने