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मरण कण्डिका
'चच्यवन कल्पं स्वं विरोधं स्वान्यपक्षयोः । असमाधिकरं वादं कषायानग्नि सन्निभान् ॥ २६२ ॥ | श्रुतसारेषु
स्त्रिषु ।
न सः ॥ २६३ ॥
दर्शने चरणे ज्ञाने, निधातु गणमात्मानमसमर्थो गणी दर्शने चरणे ज्ञाने श्रुतसारेषु य स्त्रिषु । निधातु गणमात्मानं शक्तोऽसौगदितो गणी ॥ २६४ ॥ यः पिण्डमुपध शय्यां दूषणैरुद्गमादिभिः । गृहीते रहितां योगी संयतः स निगद्यते ॥२६५॥ समये गणोमर्यादा तेषामाचारचारिणाम् । स्वच्छंदेन प्रवर्तेत लोक सौख्यानुसारिणा ॥ २६६ ॥
नवीन प्राचार्य को समझा रहे हैं कि हे साधो ! व्रतोंसे च्युति करानेवाले अतिचारोंको तुम छोड़ देना | स्वपक्ष और परपक्ष में अर्थात् जैन धर्मी और विधर्मी इनमें विरोध हो ऐसा कार्य नहीं करना । अग्नि के समान अन्तर्बाह्यको जलाने वालो Territt छोड़ो और शांतिका भंग करनेवाला वाद-विवाद छोड़ो || २६२ ॥
आगम में सारभूत ऐसे सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्रमें अपनेको और संघको जो स्थिर नहीं करता, अर्थात् रत्नत्रय धर्म में स्वपरको स्थापित करने में जो असमर्थ है यह आचार्य नहीं है—आचार्य पदके योग्य नहीं है ।। २६३ ॥
तो फिर कैसा आचार्य होता है ऐसा प्रश्न होनेपर बताते हैं
श्रुतके सारभूत ऐसे सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र इन तीनोंमें अपनेको और संघको स्थापित करने में जो समर्थ है वह आचार्य है- आचार्य पदके योग्य है ।। २९४ ।। जो साधु प्रहार, उपकरण और वसतिको उद्गम आदि छियालीस दोषोंसे रहित ग्रहण करता है जिस आहार आदिमें उक्त दोष होवे तो ग्रहण नहीं करता वह योगी संयत कहलाता है ।। २६५ ।।
ज्ञानाचार आदि पंचाचारोंका जो पालन करते हैं उन आचार्योंकी मर्यादा आगम में पूर्वोक्त कही वैसी है, जो लौकिकसुखकी प्राप्ति जैसे हो वैसे स्वच्छन्द - मनचाहा प्रवर्तन करता है उसके वह मर्यादा नहीं है अर्थात् लौकिक सुखमें आसक्त मुनि आचार्य पदके योग्य नहीं है ।। २९६ ||