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सल्लेखनादि अधिकार
संक्षिपृहादितोऽम्भोधि गच्छन्तीव महानी । विस्तरन्ती विधातागुणशील प्रवर्तना ॥२८॥ मा स्मकार्षी विहारं त्वं, मार्जारसितोपमम् । मा नोनशो गणं स्वं च, कवाचन कथंचन ।।२६०।। विध्यापयति यो वेश्म, नात्मीयमलसत्वतः । परमेश्मशमे तत्र, प्रतीतिः क्रियते कथम् ॥२६॥
जिसप्रकार नदी उद्गम स्थान में अल्प प्रमाण उत्पन्न होती है और सागरके तरफ जाती हुई महाप्रमाण होती है उसीप्रकार आपको भी प्रारम्भ में अल्प प्रमाणसे गुण, व्रत, शीलादि धारण कर उत्तरोत्तर उन प्रतादिमें बढ़ती हुई प्रवृत्ति करनी चाहिये अर्थात् अहिंसादि व्रत एवं शील आदि आगे आगे वृद्धिंगत हो ऐसा करना चाहिये ॥२८९॥
जैसे मार्जारका शब्द पहले प्रथम बड़ा और अन्त में अल्प रहता है वैसा तुम कदापि किसी तरह भी आचरण नहीं करना न संघसे कराना, ऐसा आचरण करके कभी भी अपना और संघका नाश नहीं करना अर्थात् प्रारम्भमें दुर्धर अति कठोर तप नियममें प्रवृत्ति करना और पीछे मंद आचरण (तप आदिमें प्रवृत्त ही नहीं होना उसमें अश्रद्धा हो जाना इत्यादि) करने लग जाना, ऐसा नहीं होना चाहिये तथा सर्वथा कठोर तप आदि आचरणसे अपना और संघका नाश नहीं करना ।।२९०॥
भावार्थ--सर्वदा कठोर आचरण करनेसे अकालमें समाधि या तीव्र रोगादि को संभावना हो जाती है अथवा पहलेसे अति कठोर तपश्चरण करनेसे आगे उनमें शिथिलता आकर वह उन चारित्र अंतमें मंद-मंद हो जाता है अथवा श्रद्धा घट जाती है । अतः प्रारम्भ में अल्प तप आदिसे प्रवृत्ति करना चाहिये जिससे आगे आगे श्रद्धा भावना बढ़े ।
जो आलसके कारण जलते हुए अपने घरको हो नहीं बुझाता उसमें कैसे विश्वास करें कि यह व्यक्ति जलते हुए पराये घरको बुझा देगा ! यहाँ भाव यह समझना कि जो साधु अपने प्रतोंको सुरक्षित नहीं रखेगा वह अन्यके व्रतोंको कैसे सुरक्षित रखेगा ? नहीं रख सकता ।।२९१।।