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अवोचार भक्त त्याग इंगिनी प्रायोपगम नाधिकार नृपे हत्ते हि चोरेण यतिलिंगमुपेयुषा । प्राचार्यः संघशान्त्यर्थ शस्त्रग्रहणतो मृतः ।।२१४७।।
लगी, धनश्रीका दुःख पिता धनपति से देखा नहीं गया उसने मुनि वृषभसेनको उठाकर घर ले लाया और उसे अनेक कपट द्वारा गृहस्थ बना दिया । कुछ दिन बाद अवसर पाकर वृषभसेन पुनः मुनि बन गये । दुष्ट धनपति पुनः हठात् उनको घर पर लाया
और क्रोधमें साकलसे बांध दिया। मुनिने देखा कि यह मुझे पुनः विवश कर रहा है, मेरी संयम निधि खूटेगा। उन्होंने श्वासोच्छ्वास का निरोधकर आराधना पूर्वक सन्यास द्वारा प्राण त्याग किया और स्वर्ग में जाकर वैमानिक महद्धिक देवपद प्राप्त किया। इसप्रकार वृषभसेन मुनिराजने ऐसी विषम स्थिति में भी पात्म कल्याण किया।
वृषभसेन मुनिकी कथा समाप्त । मुनिका वेष लेकर चोरने राजाको मारा था । उस वक्त वहाँपर आचार्यने संघपर आनेवाली बड़ी आपत्तिको दूर करने के लिये शस्त्र ग्रहणकर-शस्त्रसे अपना घात कर समाधिमरण किया था ।।२१४७।।
यतिवृषभ आचार्यको कथा-- श्रावस्ती नगरीका राजा जयसेन था उसके पुत्र का नाम वीरसेन था। उस नगरीमें शिवगुप्त नामका बौद्ध भिक्षु था, वह निर्दयो एवं मांस भक्षी तथा कपटी था । राजा जयसेन बौद्ध धर्म पर विश्वास करता था अत: शिवगुप्तको अपना गुरु बनाया । एक दिन यतिवृषभ आचार्य संघसहित उस नगरोके बाह्य उद्यानमें आये । प्रजाजनोंको उनके दर्शनार्थ जाते देख कर राजा भी कौतुहल वश उद्यान में गया, वहांपर कल्याणकारी मिष्ट वाणोसे आचार्य उपदेश दे रहे थे; उपदेश तात्त्विक एवं तर्कपूर्ण था उसे सुनते ही राजा जैनधर्मका श्रद्धालु होगया । उस दिनसे उसने बुद्ध की उपासना छोड़ दी। इससे बौद्ध भिक्षु शिव गुप्तको बड़ा क्रोध आया। उसने राजाको बहुत समझाया किंतु वह राजाको जैनधर्मको श्रद्धाको नष्ट नहीं कर सका तब पृथिवो पुरी नामकी नगरी में बौद्धधर्मी राजा सुमति के पास जाकर जयसेन राजाका जैन होने का समाचार कहा । सुमति राजाने जयसेनके पास पत्र भेजकर उसको पुन: बौद्ध बनने को कहा किन्तु जयसेन नरेशने स्वीकार नहीं किया। सुमतिका कोप बढ़ता गया। उसने गुप्त रूपसे जयसेनको