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भक्तप्रत्याख्यानमरण अहं आदि अधिकार
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प्रौत्सर्गिक पदान्वेषी, शय्यासंस्तरकादिकम् । पंचधा शुद्धिमप्राप्य, ये विवेकं च पंचधा ॥१७॥ विपद्यते समाधि ते, लभते न विमोहिनः ।
द्धि ये पंचधा प्राप्ता, ये विवेकं च पंचधा ॥१७२।। शुद्धिरालोचना शय्या संस्तरोपधि गामिनी । वयावृत्यकराहार पानजाता च पंचधा ॥१७३।। ज्ञान दर्शन चारित्रविनयावश्यकाश्रया । अथवा पंचधा शुद्विविधया शुद्धबुद्धिना ॥१७४।।
अर्थ---जो औत्सगिक पदका अन्वेषक है किन्तु शय्या संस्तर आदि के विषय में पांच प्रकार की शुद्धि और पांच प्रकार के विवेक को प्राप्त नहीं करते वे मोहित मुनि समाधि को प्राप्त नहीं कर सकते ।। १७१।।
अर्थ- जो सा पांच प्रकार की शुशि और पर प्रकार के विवेक प्राप्त कर लेते हैं वे सर्वत्र निश्चित चित्त वाले समाधि को प्राप्त करते हैं ।।१७२।।
अर्थ-शुद्धि के पांच भेद बताते हैं-आलोचना शुद्धि, शय्या संस्तर शुद्धि, उपधि शुद्धि, वैयावृत्य शुद्धि और आहारपान शुद्धि ।।१७३॥
__विशेषार्थ-अपने व्रतादि में जो दोष लगे हों उन्हें गुरुको बताना आलोचना कहलाती है, आलोचना करते समय छल, असत्य भाषण आदि नहीं होना आलोचना शुद्धि है । शय्या संस्तर बसति आदि में उद्गम उत्पादन आदि दोष नहीं होना अर्थात जो वसति और संस्तर उद्दिष्ट दोष निर्मुक्त हो-अपने लिये उद्देश करके नहीं बनाया हो अपने लिये जिसके संस्कार आदि नहीं किये गये हों वह शय्या और संस्तर शुद्धि है। पीछी कमंडलु भी अपने लिये निर्मित नहीं होना उपधि या उपकरण शुद्धि है । इसमें भो उक्त उद्दिष्ट आदि दोष न हो । आहार पानी उद्दिष्ट उत्पादन एषणा आदि दोषों से रहित होना आहारपान शुद्धि है । वैय्यावृत्य करने वाले वैयावृत्यपद्धतिको जानते हों यह वयावृत्यकरण शुद्धि है ।
अर्थ-शद्ध बुद्धिवाले साधुको दर्शन शुद्धि, ज्ञान शुद्धि, चारित्र शुद्धि, विनय शुद्धि और आवश्यक शुद्धि ऐसी पांच प्रकार की शुद्धि करनी चाहिये ।। १७४।।