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________________ मरएकण्डिका एवं स्मृति परिणामो, निश्चितो यस्य विद्यते । तोयायामपि बाधायां, जोबिताशास्य नश्यति ॥१६॥ इति परिणामः । उपधिं मुचतेऽशेषं, मुक्त्वाऽसंयमसाधकम् । मुमुक्षु मृगयन्मुक्ति, शुद्धलेश्यो महामनाः ॥१६६।। साधुर्गवेषयन्मुक्ति, शुद्धलेश्यः महामनाः । विमुचत्यपषि सर्व, मल्पानल्पपरिक्रियम् ॥१७॥ अर्थ- सल्लेखना का महत्व उसको दुर्लभता आदि का जिसने भली प्रकार विचार कर मैं अवश्य ही शरीर का त्याग करूगा ऐसा दृढ़ परिणाम कर लिया है ऐसे निश्चित परिणाम बाले साधु के समाधि काल में तीन बाधा सताने पर भी जीवन की आशा नहीं रहतो। अतः स्मृति परिणाम में जीविताशाका नाश करने वाला यह 'परिणाम' नामके गुणका वर्णन किया है ॥१६८॥ सातवां परिणाम अधिकार समाप्त हुआ। उपधित्यागनामा आठवां अधिकारअर्थ-शुद्ध लेश्या वाला महामना साधु मुक्ति को मार्गणा करता हुआ संयम के साधक पिच्छी आदि को छोड़कर शेष उपधि-परिग्रह का त्याग करता है ।।१६९।। अर्थ-मुक्ति का अन्वेषण करनेवाला शुद्ध लेण्यायुक्त महामना साधु अल्प परिकर्म वाली उपधि और अधिक परिकर्म वाली उपधि ऐसे सर्व ही उपधि-परिग्रह का त्याग करता है ।।१७०॥ विशेषार्थ-उपधि परिग्रह को कहते हैं । जब साधु समाधि के सन्मुख होते हैं तब शास्त्र आदि योग्य वस्तु का भी त्याग कर देते हैं। अल्प परिकर्म का अर्थ यह है कि जिस वस्तु में शोधन, निरीक्षण आदि क्रिया थोड़ी करनी पड़ती है वह अल्प परिकर्म उपधि कहलाती है और जिसमें उक्त क्रिया अधिक करनी पड़ती है वह अनल्प या अधिक परिकर्म उपधि कहलाती है । समाधि के अवसर पर दोनों उपधि का त्याग करता होता है।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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