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________________ भक्तप्रत्याख्यानमरण मह का अधिकार [ . योगा यावन्न होयंते, यावन्नश्यति न स्मृतिः । श्रद्धा प्रवर्तते याव, यावदिद्रिय पाटवम् ।।१६५॥ क्षेमं यावत्सुभिक्षं च, संति नष्टास्त्रिगारयाः । यावन्निर्यापका योग्या, रत्तत्रित्रय सुस्थिताः ॥१६६।। तावन्मेदेहनिक्षेपः कुत्तुं युक्तो बुधेहितः । भक्त त्यागो मतः सूत्रे, व्रतयज्ञो ध्वजग्रहः ।।१६७१। क्षीण होना आदि कारण बताये हैं । उन कारणों में से कोई कारण उपस्थित होने पर जैन साधु आहार के त्याग में नियम से अपनी बुद्धि लगाते हैं, अर्थात् उसी विधि के अनुसार भक्त प्रतिज्ञा को करते हैं ।। १६४।। अर्थ-जब तक आतपन आदि योग धारना कम नहीं होता, स्मृति जब तक नष्ट नहीं होती, श्रद्धा-रत्नत्रय में रुचि जब तक बनो है, इन्द्रियों में शिथिलता नहीं है, देश में क्षेम और सुभिक्ष है, ऋद्धि गारव आदि तीन गारव नहीं सताते, जब तक रत्नत्रय में स्थिर ऐसे योग्य निर्यापक आचार्य हैं तब तक ही मुझे देह त्याग करना युक्त है इसप्रकार मुनि विचार कर भक्त प्रतिज्ञा के सन्मुख होते हैं। सूत्र में इस भक्त प्रतिज्ञाको व्रतयज्ञ कहा है यह बुद्धिमान को अति इष्ट है, इस भक्त प्रतिज्ञा को ध्वज ग्रह कहते हैं, यहां आराधना ही ध्वजा है और उसको इस मरण में ग्रहण किया जाता है अतः यह ध्वज ग्रह कहलाता है ।।१६५॥१६६॥१६७।। विशेषार्थ-आतपन आदि योग धारण की शक्ति नष्ट न हो, स्मृति नष्ट न हो, रत्नत्रय में रुचि हो, नेत्र आदि इंद्रियां अपने कार्य में समर्थ हो, ऐसी स्थिति के रहते हुए समाधि में प्रयत्न करना चाहिये क्योंकि योग की शक्ति समाप्त हुई, स्मृति नष्ट हुई, इंद्रियां बेकाम हुई तो उस वक्त साधु समाधिमरणको वेदना सहना, तत्त्वचिंतन करना इत्यादिमें समर्थ नहीं रहेगा । गारव गर्वको कहते हैं, ऋद्धि गारव, रस गारव, सात गारव ऐसे गारव के तीन भेद हैं, मैं ही ऋद्धि सम्पन्न हूं इत्यादि गर्व के रहने से समाधि ठीक नहीं हो सकती क्योंकि गर्व तो कषाय है और कषायको यहां कृश करना है । देशमें क्षेम और सुभिक्ष न होवे तो समाधि करने वाले क्षपक के और उनके सहायक निर्यापक और श्रावक आदि के चित्त क्षोभ आदि के कारण समाधि में बाधा उपस्थित हो सकती है । निर्यापक के बिना तो समाधिस्थ क्षपकरूपी नाव पार ही नहीं हो सकती है । अतः समाधि का इच्छुक मुनि इन सबका विचार करता है।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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