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मरकण्डिका
स्थानानि तानि सर्वाणि कषायाक्षगुरुकृताः । संसक्ताः सकलैर्दोषः केचित् गच्छन्ति दुधियः ॥ १३७७॥ इत्येते साधयः पंच निशिता जिनशासने । प्रत्यनीकक्रियारभाः कषायाक्षगुरुकृताः ॥ १३७८ ॥ दुरंताश्चंचला दुष्टा वृत्तसर्वस्वहारिणः । दुर्जयाः सन्ति जीवानां कषायेन्द्रिय तस्कराः ।। १३७६ ।। छंद - शालिनी
छिद्रापेक्षाः सेव्यमाना विभीमा तो पार्श्वस्थाः कस्य कुर्वन्ति दुःखम् । क्रोधाविष्टाः पन्नगा वा द्विजिह्वाः विज्ञायेत्थं क्रूरतो वर्जनीयाः ।। १३८० ॥
छंद-तोटक
तृणतुल्यमवेत्य विशिष्टफलं परिमुच्य चरित्रमपास्तमलम् । agrisargatnant निवसन्ति चिरं कुगतावयशाः ।। १३८१ ।।
॥ इति संसक्ता ||
कोई कुबुद्धि मुनि कषाय और इन्द्रियविषयके तीव्र परिणामके द्वारा निर्मित हुए संपूर्ण अशुभ स्थानोंको प्राप्त होते हैं, इसतरह संपूर्ण दोषोंसे वे युक्त होते हैं ।। १३७७ ।।
इसप्रकार ये पांच अवसन्न, पार्श्वस्थ, कुशील, यथाछंद और संसक्त मुनि जिनशासन में निंदनीय माने जाते हैं, क्योंकि ये सभी साधू पदके विरुद्ध ऐसे आचरणों के करनेवाले होते हैं तथा सदा हो कषाय भाव एवं इन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्त रहते हैं ।। १३७८ ।। इन्द्रिय और कषाय रूपी चोर जीवोंके लिये अत्यंत करानेवाले हैं, चंचल हैं, दुष्ट हैं और चारित्र रूपी धनका हैं ।। १३७६ ।। ये पार्श्वस्थादि भ्रष्ट मुनि छिद्र - दोषोंको ढूंढनेवाले हैं, भयानक हैं, जो इनकी संगति करता है उनमें किसको दुःख नहीं देते ? सबको दुःख देते हैं ये मुनि तो क्रोधित सर्पके समान या दुमुहोके समान हैं ऐसा जानकर दूरसे छोड़ने योग्य हैं ।। १३५० ।। विशिष्ट फलदायक ऐसे निर्दोष चारित्रको तिनके के समान गिनकर ये भ्रष्ट मुनि उसको छोड़ देते हैं और बहुत बड़े दोषोंके कारण स्वरूप कषाय और इन्द्रियोंके
दुर्जय हैं, ये खोटा अंत अपहरण करने वाले