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________________ [ ३६६ अनुशिष्टि महाधिकार सतः शीलदरिदास्ते लभंते दुःखमुल्बणम् । बहुभेदपरोवारा निर्धाना हव सर्वदाः ॥१३७२॥ स सिद्धियायिनः सानिर्गतः साधुमार्गतः । स्वच्छंदस्वेच्छमुत्सूत्रं चारित्रं यः प्रकल्पते ॥१३७३॥ पज्जायते यथाछंबो नितरामपि कुर्वतः। वृत्तं न विद्यते तस्य सम्यक्त्वसहचारितः ।।१३७४।। जिनद्रभाषितं तथ्यं कषायाक्षगुरुकृतः । प्रमाणीकुरुते वाक्यं यथाछंदो न दुर्मनाः ॥१३७५।। - [इति स्वच्छवः] कषायेन्द्रियदोषेण वृत्तात् सामान्य योगतः । यः प्रभ्रष्टः परिश्रान्तः स भ्रष्टः साधुसार्थतः ॥१३७६॥ इसप्रकार मिथ्यात्वको प्राप्त हुए वे शील दरिद्री अर्थात प्रत शीलरूपी धन जिनका नष्ट हो चुका है ऐसे वे भूष्ट मुनि संसारके महादुःखको भोगते हैं। जैसे बहुत बड़े परिवार वाले व्यक्ति यदि निर्धन हो तो सर्वदा महादुःखको भोगते हैं ।।१३७२।। मुक्ति मार्गमें चलनेवाले साधुका साथ छोड़कर जो उस मार्ग से निकल जाते हैं वे स्वच्छन्द हो मनमानी आगम विरुद्ध ऐसे आचरणको कल्पना करते हैं ॥१३७३।। जो यथाछंद हो गया है अर्थात् मनचाही प्रवृत्ति कर रहा है और बाहरसे संयमाचरणका दिखावा करता है उसके सम्यक्त्वका साथी ऐसा समोचीन चारित्र नहीं रहता है ।।१३७४।। यथा छंद नामका यह मुष्ट मुनि कषाय और इन्द्रिय के भारसे आक्रांत हुआ खोटे मन वाला होता है वह जिनेन्द्र मगवानके द्वारा प्रतिपादित वास्तविक तत्त्ववाक्य को स्वीकार नहीं करता है ।।१३७५।। ___ स्वच्छंद-यथाछंद नामके भ्रष्ट मुनिका कथन समाप्त । जो कषाय और इन्द्रियके दोषसे सामान्य रूप ध्यान आदिसे एवं चारित्रसे भृष्ट होता है वह अपने आचरणसे परिश्रान्त-च्युत है और साधु सार्थसे भ्रष्ट है अर्थात् साधु समागम छोड़ने वाला है ।।१३७६।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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