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अनुशिष्टि महाधिकार
कश्चिद्दक्षामुपेतोऽपि कषायाक्षं निषेवते । तैलमागुरवं बस्तः प्रतिवाति पिवन्नपि ।। १३८२ ॥
मुक्त्वापि कश्चन ग्रंथं कषायाक्षं न मुंचति । हित्वापि कंचुकं सर्पों विजहाति विषं नहि ।। १३८३॥
दीक्षितोप्यधमः कश्चित्कषायाक्षं चिकीर्षति । शुकरः शोभनैः रत्नैर्मलं तृप्तोऽपि कांक्षति ।। १३८४ ।।
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आधीन होते हैं इसतरह खोटे भावके परवा हुए कुमतिमें चिरकाल तक निवास करते हैं ।११३८१ ।।
कोई साधु जिनदीक्षा को धारण करके भी कषाय और इन्द्रियोंके विषयोंका सेवन करता है, ठीक ही है । देखो ! अगुरु चंदनका अत्यंत सुगंधित तेलको पीता हुआ भो बकरा दुर्गंधको हो छोड़ता है । अर्थात् जैसे बकरा सुगंधित तेल पी लेवे तो भी दुर्गंधीको हो छोड़ता है-उसके शरीरसे दुर्गंध ही आती है, वैसे कोई दीक्षा रूपी सुगंधि से संयुक्त होकर भी कषाय और इन्द्रियविषयरूपी दुर्गंधका ही सेवन करता है, उस दुर्गंध को नहीं छोड़ता ।। १३८२ ।।
कोई पुरुष परिग्रहका त्याग करके भी कषाय और पंचेन्द्रियोंके विषयोंको नहीं छोड़ पाता, जैसे कि सर्प कांचलो को छोड़ देता है किन्तु विषको नहीं छोड़ता ।। १३८३ ।। कोई नीच व्यक्ति दीक्षित होकर भी कषायभाव इन्द्रिय भोगोंकी इच्छा करता है वह पुरुष वैसा है जैसा कि शूकर सुन्दर रत्न - उत्कृष्ट भोजन द्वारा तृप्त होनेपर भी मलको इच्छा करता है ||१३८४ ।।
भाव यह है कि शूकर को हमेशा विष्ठा भक्षण का अभ्यास रहता है वह कदाचित् अच्छे पदार्थ को खाकर तृप्त भी हुआ हो तो विष्ठा को देखकर उसको खाने की इच्छा करता है, खाता है, खानेके लिये दौड़ता है, वैसे गृहस्थ अवस्था में रागद्वेष मत्सर आदि भाव एवं मनोहर भोजन वस्त्र आदि का सेवन करने का अभ्यास रहता है अतः दीक्षित होनेपर भी कदाचित् कोई अधम व्यक्ति उन्हीं कषाय और विषयों को चाहता है ।