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________________ ४.२ ] मरकण्डिका विहाय हरिणो यूथं व्याधभीतः पलायितः । स्वयं पुनर्यथा याति वागुरां पूयतृष्णया ।।१३८५ ॥ प्रारामे विचरन्स्वेच्छं पतश्री पंजरच्युतः । यथा याति पुनर्मूढः पंजरं नोडतृष्णया ।।१३८६ ॥ उसारितः करींद्र ेण पंकतः कलभो यथा । स्वयमेव पुनः पंकं प्रयाति जलतृष्णया ।। १३८७ || उड्डीय शाखिनः पक्षी सर्वतो बन्हवेष्टितात् । तत्रैव नोडलोभेन यथा याति पुनः स्वयम् ॥ ११३८८ ।। व्यमानोऽहिना सुप्तो जाग्रतोत्थापितो यथा । कौतुकेन तमादातु कश्चिदिच्छति मूढधीः ।। १३८६ ।। स्वयमेवानं वतिं निर्लज्जो निर्घुणाशय: 1 सारमेयो यथाश्नाति कृपणोऽशनतृष्णया ।। १३६० ।। अब आगे यह बतलाते हैं कि जो कोई पुरुष गुरुके उपदेश से या स्वयं के भावसे संसार भोग धन परिवार रागभाव आदिका त्याग करके पुन: उन्हीं धन भोग कषाय आदिको चाहता है उनका सेवन करता है वह पुरुष कैसा है जैसे कोई हिरण शिकारीके भयसे अपने झुंडको छोड़कर भाग जाता है और पुनः अपने उसी झूडको पाने की तृष्णासे शिकारोके जाल में स्वयं फँसता है ।। १३८५ ।। जैसे कोई पक्षो पिंजरे से छूटकर उद्यान में स्वच्छंद उड़ रहा है और घोंसले में रहने की इच्छा करता हुआ वह मूढ उसी पिंजरे में पुनः आकर फँस जाता है ।। १३८६ ।। जैसे हाथो का बच्चा कीचड़ में फँसा था उसको हाथोने कीचड़ से निकाल लिया है किन्तु जल पोनेकी वांछासे पुन: स्वयं कीचड़ में जाकर फँसता है ।। १३८७।। जैसे कोई पक्षी चारों ओरसे जिसमें अग्नि लगी है ऐसे वृक्षसे उड़कर घोसले के लोभसे पुनः उसी वृक्षपर स्वयं आजाता है ।।१३८८ ।। जैसे कोई मूढ बुद्धि पुरुष है वह सो रहा था उसको सर्प लांघ रहा था उस वक्त किसीने उसको जगाकर उठा दिया किन्तु वह कौतुक से उस सर्पको पकड़ना चाहता है ।।१३६९ || जैसे कोई निर्लज्ज और ग्लानिरहित कृपण और कुत्ता स्वयंसे वमन किये गये भोजनको भोजनकी लालसा से खाता है ।।१३९०।। वैसे
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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