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________________ अनुशिष्ट महाधिकार गृहवासं तथा स्यवत्वा कश्चिद्दोषशताकुलं । कषायेन्द्रियदोषार्ती याति तं भोगतृष्णया ।। १३६१ ।। बंधमुक्तः पुनबंधं निश्चितं स वियासति । यो दीक्षितः कषायाक्षान्सिषेवयिषेत कुधीः ||१३६२ ॥ [ ४०३ ही कोई पुरुष सैकड़ों दोषोंसे भरे हुए गृहवासको छोड़कर कषाय और इन्द्रियविषयसे पीड़ित हुआ भोगोंको लालसासे पुनः उसी गृहवासको प्राप्त करता है । अर्थात् गृह परिग्रह आदिका त्यागकर पुनः उसीको चाहने लगता है, ग्रहण करता है, गृहीत चारित्रसे भ्रष्ट हो जाता है ।। १३९१।। विशेषार्थं - यहां पर आचार्यने गृहवासको सैकड़ों दोषोंसे युक्त कहा है, सो उन दोषोंका कुछ वर्णन करते हैं गृहवास का है, इसका भावका अधिष्ठान है भाशा रूपी पिशाचोके आधीनता गृहवासमें अवश्य होती है अर्थात् यह मिल जाय अमुक कार्य हो जाय इसप्रकार की आशायें घर में रहनेवाले गृहस्थ को होती ही रहती है । जीवनयापनके लिये सतत् कृषि व्यापार आदि करते रहने से क्लेश होता है । पृथिवीकायिक आदि षटुकाय जीवोंको विराधना होनेसे महान् पाप संचय होता है । दुर्यशसे अर्थात् परिवार में कोई दुराचार आदि करे तो उससे दुर्यश होता है अतः गृहावास मलिनताका कारण है । विपत्तियां सदा गृहीको घेरी रहती है । इसका उपकार करना और इसका नहीं इसतरह सदा वित्त में अहंकार भाव बना रहता है घनका उपार्जन, रक्षण और व्ययमें लगे रहने से सार असारका विचार करनेकी बुद्धि गृहस्थके प्रायः नष्ट हो जाती है । प्रिय वियोग और अप्रियका संयोग होता रहनेसे शोकाग्निको ज्वालासे वह तप्तायमान रहता है । इच्छित पदार्थ की प्राप्ति के अभाव में दुःख संताप होता है । इसीप्रकार अन्य अन्य बहुत से दोष जो वचनके अगोचर हैं वे गृहावास में हुआ करते हैं । जो साधु दीक्षित होकर भी कषाय और इन्द्रियोंके विषयोंका सेवन करने की इच्छा करता है वह दुर्बुद्धि निश्चित हो, बंधन मुक्त होकर पुनः बंधन में पड़ना चाहता है ऐसा मानना चाहिये ।। १३६२ ।। यदि साधु दीक्षित होकर भी कषाय और इन्द्रिय विषयरूपी कलहको चाहता है तो समझना चाहिये कि वह कलहका त्यागकर पुनः उसी कलहको स्वीकार करता
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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