SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 444
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०४ ] मरणकण्डिका वीक्षित्वापि पुनः साधुः कषायाक्षकलि यदि । जिघृक्षति कलि मुक्त्वा पुनः स्वीकुरुते कलिम् ॥१३६३॥ विषाय ज्वलितं हस्ते मुर्मुरं स बुभुक्षते । माथि रु कृष्ताहि व्याघ्र स्पृशति सक्षुषं ॥१३९४।। कंठालग्नशिलोऽगाधं सोऽज्ञानो माहते हृदम् । अबलो वापि यो दीक्षा कवायाक्षं प्रपद्यते ॥१३६५॥ गृहोतोऽक्षग्रहाघ्रातो नापरो ग्रहपीडितः । अक्षयः स सदा दोषं विदधाति कवाग्रहः ।।१३९६॥ कषायमत्त उन्मत्तः पिसोन्मत्तोऽपि नो पुनः । प्रथमः कुरुते पापं द्वितीयो न तथा स्फुटम् ॥१३९७॥ कषायाक्षपिशाचेन पिशाचोक्कियते जनः । जनानां प्रेक्षणीभूतस्तोत्रपापक्रियोद्यतः ॥१३९॥ है क्योंकि कषाय और इन्द्रिय विषयोंके कारण हो जगत् में कलह हुआ करते हैं ॥१३६३॥ जो साधु दीक्षित होकर कषाय और इन्द्रिय विषयरूप परिणामको स्वीकार करता है वह जलते अंगारेको हाथमें लेकर खानेको इच्छा करता है अथवा काले नाग को लांघता है या भूखे व्याघका स्पर्श करता है ।।१३९४|| जैसे कोई अज्ञानी कंठमें शिलाको बांधकर अगाध सरोवरमें प्रवेश करता है, वैसे जो निर्बल दीक्षाको लेकर पुन: इन्द्रिय और कषायको अधीनताको प्राप्त करता है ।।१३६५।। जो इन्द्रियरूपी ग्रहसे पीड़ित है वास्तवमें वही ग्रह (शनि प्रादि) से पीड़ित है ऐसा समझना चाहिये, दूसरा कोई ग्रह पीड़ित नहीं है क्योंकि इन्द्रिय रूपो ग्रह सतत् भव-भवमें दोषको करता है, शनि आदि ग्रह कदाचित् ही दोष करते हैं ।।१३६६।। जो कषायोंसे मत्त हो रहा है वही व्यक्ति वास्तवमें उन्मत्त (पागल) है, पित्त से उन्मत्त हुएको उन्मत्त नहीं मानना चाहिये क्योंकि जो कषायसे उन्मत्त है वही पाप करता है जो पित्त ज्वरसे उन्मत्त है वह पाप नहीं करता है ।।१३६७। कषाय और इन्द्रियरूपी पिशाच द्वारा यह मनुष्य पिशाचरूप हो किया जाता है । पिशाच तो अदृश्य होकर कुचेष्टा कराता है और कषाय इन्द्रियरूपी पिशाच
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy