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________________ [४०५ अनुशिष्टि महाधिकार संयतस्य कुलीनस्य योगिनो मरणं परम् । लोकद्वयसुखध्वंसि न कषायाक्षपोषणम् ॥१३६६॥ निद्यसे संयतः सर्वः कषायाक्षवशंगतः । सन्मद्धो धृतकोदंडो नश्यन्निव रणांगणे ॥१४००॥ कषायाक्षवशस्थायी दूष्यते कैर्न संयतः । याचमाती पथा भिधा भूचितो 'मुयुधानिभिः ।।१४०१।। सर्वागीणमलालोढो नग्नो मुंडो महातपाः। जायते सकषायाक्षश्चित्रश्रमणसन्निभः ॥१४०२॥ जिसको लगा है वह लोगोंके देखने योग्य कुचेष्टा-तोत्र पाप क्रिया को करता है ।।१३६८।। जो कुलवान संयमी साधु है उसको मरण स्वीकार करना श्रेष्ठ है किन्तु इस लोक और परलोकके सुखका नाश करनेवाले कषाय और इन्द्रियोंका पोषण उसे कभी नहीं करना चाहिये ||१३६६।। जो साधु इन्द्रिय और कषायोंके वश में हो गया है वह सभीके द्वारा निंदनीय हो जाता है, जैसे कोई भट हाथ में धनुष लेकर युद्ध के लिये तैयार हुआ है और रणांगण में पहुंचकर भागने लगता है तो वह सभीके द्वारा निंदनीय होता है ।।१४०० ।। कषाय और इन्द्रियोंके वश में रहनेवाला संग्रमी किनके द्वारा दूषित नहीं होता ? सबके द्वारा दूषित होता है । जिसप्रकार कि मुकुटहार आदि आभूषणोंसे भूषित-सजा हुआ पुरुष भिक्षाको मांगने लगे तो सबके द्वारा दूषित होता है, सबकी हँसोका पात्र होता है। वैसे कषायके अधीन हुआ साधु हँसीका पात्र है निंद्य है ।।१४०१।। ___ अस्नान व्रतके कारण जिसके सर्वागमें मल लिप्त है वस्त्रमात्रका त्याग होनेसे नग्न है, केश-लोच करनेसे मुंड है, अनशन आदि महातपको करता है ऐसा साधु भी कषाय और इन्द्रिय विषय युक्त होनेसे चित्रामके साधुके समान तुच्छ-गुण रहित ही माना जाता है अर्थात् जैसे चित्रामका मुनि वास्तविक मुनि नहीं है वैसे कषाय आदिसे युक्त मुनि वास्तविक मुनि नहीं है ।।१४०२।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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