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मरकण्डिका
ज्ञानवोषविनाशाय
कषायेंद्रियनिर्जयः ।
शस्त्रं शत्रुविघाताय जायते सत्वसंभवे ।। १४०३ ॥ वोपाय जायते ज्ञानं कषायेंद्रियदूषितम् । आहारो हरसे कि न जीवितं विषमिश्रितम् ।।१४०४ ।। विदधाति गुणं ज्ञानं कषायेंद्रियजतम् । पुर्योग्यं करोत्यन्तं बलवर्णादिसु वरम् ।।१४०५ ।। कषायेंद्रियदोषेण ज्ञानं नाशयते गुणं । शस्त्रमात्मविनाशाय किन्न भोरुकरस्थितम् ॥ १४०६ ॥
शास्त्रज्ञोऽप्ययमन्यते ।
कषायेंद्रिय दोषार्तः कि प्रेतः शस्त्रहस्तोऽपि न खर्गः परिभूयते ॥ १४०७ ॥
कषाय और इन्द्रियोंके विषय जीतनेपर ज्ञान दोषों का नाश करने में ( कमौका नाश करनेमें) समर्थ होता है, जैसे सत्व- धैर्य होनेपर ही शस्त्र, तलवार, घनुष आदि शत्रुका नाश करने में समर्थ होते हैं ।। १४०३ ।।
जो ज्ञान कषाय और इन्द्रियोंसे दूषित है वह दोषोंके लिये कारण बनता ( कर्म बंधरूप दोषका कारण) है, क्या विष मिश्रित माहार जीवनका नाश नहीं करता ? करता ही है । इसीप्रकार कषाय आदिसे युक्त ज्ञान दोषका ही कारण है । आहार यद्यपि जीवनका मुख्य साधन है किन्तु विषयुक्त आहार जीवन के विपरीत मरण का कारण होता है, वैसे ज्ञान गुणका कारण है उपकारक है किन्तु कषायादिसे युक्त होकर उल्टे दोषोंका कारण होता है ।११४०४ |
कषाय और इन्द्रियोंसे रहित जो ज्ञान है वह गुणको करता है, जैसे योग्य आहार अर्थात् विषादिसे रहित आहार शरीरको बल, रूप, लावण्य ग्रादिसे युक्त करता है ।। १४०५ ।। कषाय और इन्द्रियोंके दोषसे ज्ञान गुणको नष्ट कर डालता है। ठोक हो हैं डरपोक आदमीके हाथ में आया हुआ शस्त्र क्या खुदके नाशके लिये नहीं होता ? होता ही है ।।१४०६ ।। कषाय और इन्द्रियोंके दोषसे युक्त पुरुष शास्त्रोंका अच्छी तरहसे जाननेवाला हो तो भी लोगों द्वारा अवमान्य- तिरस्कृत होता है, शस्त्रयुक्त भी शव हो तो