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________________ [ ४.७ अनुशिष्टि महाधिकार वृत्ते नाक्षकषायातः श्रुतशोऽपि प्रवर्तते । उड्नीयते कुत: पक्षी लूनपक्षः कदाचन ॥१४०८।। नसते बह्वपि ज्ञानं कषायेंद्रियदूषितम् । सशर्करमपि क्षीरं सविषं मंक्षु नश्यति ॥१४०६॥ ज्ञानं परोपकाराय कषायेंद्रिय वषितम् । किमूढमुपकाराय रासभस्य हि चंदनम् ॥१४१०॥ कषायाक्षगहीतस्य न विज्ञानं प्रकाशते । निमीलितेक्षणस्येव दीपः प्रज्वलितो निशि ॥१४११॥ क्या वह गीध आदि पक्षियों द्वारा तिरस्कृत नहीं होता है ? अर्थात् कोई शव-मुर्दा है और उसके हाथ में तलवार है किन्तु उस तलवारसे पक्षी नहीं डरते हैं उसको खाते ही हैं, वैसे कोई शास्त्रज्ञ तो है किन्तु कषाय और इन्द्रियों के आधीन है तो उसे कोई नहीं मानता है ।।१४०७।। इन्द्रिय और कषायसे पीड़ित पुरुष शास्त्रज्ञ होकर भी चारित्रमें प्रवृत्ति नहीं करता । ठीक है ! जिसके पंख कटे हैं ऐसा पक्षी क्या कभी आकाशमें उड़ सकता है ? ॥१४०८।। बहुत सारा ज्ञान है किन्तु वह कषाय और इन्द्रियोंसे दणित है तो नष्ट हो जाता है, जैसे मिश्री सहित भी दूध है किन्तु विष मिश्रित है तो वह शीघ्र ही नष्ट होता है ।।१४०९॥ कषाय और इन्द्रियोंसे दूषित हुआ ज्ञान केवल परोपकारके लिये है, जैसे गधे के द्वारा ढोया गया चंदन खुदके उपकारके लिये होता है क्या? नहीं होता। अर्थात गधा चंदनका भार ढोता है तो उसको चंदनकी सुगंधिका ज्ञान नहीं होनेसे खुदको कुछ भी लाभ नहीं है । उसीप्रकार बहुत से शास्त्रोंका ज्ञान है किन्तु कषायादिसे युक्त है वह ज्ञान अपने खुद आत्माके लिये कुछ भी हितकारी नहीं है, उस ज्ञान से अन्य व्यक्ति भले ही कुछ आत्म बोध कर लेवे किन्तु कषाय होनेसे खुदका हित नहीं हो पाता ।। १४१०॥ कषाय और इन्द्रियोंके विषयोंसे युक्त पुरुषका ज्ञान पदार्थोके स्वरूपको प्रकाशित नहीं करता, जैसे रात्रि में दीपक जल रहा है किन्तु जिसने नेत्र बंद कर रखे हैं. उसको वह पदार्थोंको दिखाने में समर्थ नहीं होता है ।।१४११।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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