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मरणकण्डिका
बहिनिभृतवेषेण गीते विषयान्सवा । अंतरमलिनः कंको मोनानिय बुराशयः ।।१४१२॥ घोटकोच्चारतुल्यस्य किमन्तः कुपितास्मनः । बुष्टस्य बकचेष्टस्य करिष्यति बहिः क्रिया ॥१४१३॥ मता बहिः क्रियाशुद्धिरन्तमलविशुद्धये । बहिर्मलक्षयेनैव तंबुलोऽन्तविंशोध्यते ॥१४१४॥ अंतः शुद्धो बहिः शुद्धिनिश्चिता जायते यतः । बाह्य हि कुरुते दोषमन्तर्दोषं विना कुतः ॥१४१५॥
कषाय और इन्द्रियके वश हुमा साधु बाहर में नग्न दिगंबर वेशयक्त होता है किन्तु उसका बह वेग छलभरा है, उस छल वेष द्वारा वह सदा विषयोंको ग्रहण करता है। वह अंदरमें तो कषायसे मलिन है । जैसे अगला नाहरसे एफेद है किन्तु अंदरमें मलिन खाटे अभिप्राय युक्त हो मछलियोंको ग्रहण करता है-खाता है ॥१४१२।।
जैसे घोड़े को लीद बाहरसे चिकनी और अंदर गंदी सड़ी रहती है, उससे क्या लाभ ! वैसे जो साधु दुष्ट और बगुलेके समान चेष्टा करता है उसकी बाहरी प्रतिक्रमण आदि क्रियायें क्या करेगी ? कुछ भी नही । भाव यह है कि बगुला बाहर में सफेद है किन्तु मछलो खाता है वैसे कोई साधु बाहर में कुछ क्रियायें प्रतिक्रमण आदिको करे किन्तु कषायादिसे अंदरमें मलिन है तो उसकी वह क्रिया कुछ भी कार्यकारी नहीं है ।।१४१३।
अंतरंग मलको विशुद्धिके लिये बाह्य क्रियाशुद्धि उपयोगी मानी जाती है । किन्तु केवल बाह्य क्रिया शुद्धिसे कार्य नहीं होता जैसे चावलका केवल बाहर का छिलका निकल जाय तो उत्तने मासे यह शुद्ध नहीं माना जाता । अर्थात् चावलकी शूद्धि करने के लिये बाह्य तुष और अंदरकी ललाई दोनों निकालने होते हैं ।
उसमें क्रम यह है कि पहले बाह्य तुण निकालते हैं और फिर अंदरकी लालिमा निकालते हैं । ऐसे ही साधुओंको बाह्य क्रिया शुद्धि अनशन आदि है और अंतरंग शुद्धि विनयादि एवं कषायरहित भाव प्रादि हैं । क्रमसे प्रथम बाह्य क्रिया शुद्धि होती है पुनः अंतरंग शुद्धि । यदि अंतरंगकी शूद्धि नहीं है तो बाह्य क्रिया शुद्धि व्यर्थ है ।।१४१४।।