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________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ ४०६ बहिः शुद्धिर्यतो नियताः सर यते । नांतः कोपविमुक्तन भृकुटि: क्रियते बहिः ।।१४१६।। छंद-इन्द्रवत्रायत्र प्रयान्ति स्थिति जन्मपद्धोस्तद्दह्यते यह दयं कषायः। काष्ठं हुतार्शरिव तीवतापस्ते कस्य कुर्वन्ति न दुःखमुनम् ॥१४१७।। छंद-शालिनीयो पोष्यंते दुःखानप्रवीणास्तेषां पीडां ये वदन्ते दुरन्ताम् । भीमाकारा ध्याधयो वा प्रवाः संत्यक्षाः कस्य ते न क्षयाय ॥१४१८॥ ॥ इति सामान्याक्ष कषाय दोषाः ।। ये रामाकामभोगानां प्रपंचेन निरूपिताः । प्रक्षाणामपि ते दोषा द्रष्टव्याः सकलाः स्फुटम् ॥१४१६।। अंतरंग शुद्धि होनेपर नियमसे बाह्य शुद्धि होती है क्योंकि भीतरमें दोष हुए बिना बाहरमें दोष कहांसे करेगा ? अर्थात् अंदरमें कषायभाव होगा तो बाहर में असत्य भाषण आदि दोष करेगा अन्यथा नहीं । इसलिये अंतरंग परिणाम निर्मल करना चाहिये ॥१४१५॥ क्योंकि अंदरकी शुद्धिको पहिचान बाह्य शुद्धि है जो अंतरंगमें कोपसे रहित है वह पुरुष बाहर में भौंह टेढ़ी नहीं करता है ।।१४१६॥ जहांपर संसारकी स्थिति और जन्मकी वृद्धि होती है, जिन कषायोंके द्वारा हृदय ऐसा संतप्त किया जाता है जैसे कि तीन ताप वाले अग्नि के द्वारा काष्ट संतप्त किया जाता है । ऐसी ये कषायें किसको भयंकर दुःख नहीं देती ? सबको ही दुःख कारक है ।।१४१७।। दुःख देने में प्रवीण ऐसे अशुभ कर्म जिनके द्वारा पुष्ट किये जाते हैं, उन अशुभ कर्मको करनेवाले व्यक्तियोंको जो दुरंत पीड़ा पहुंचाते हैं । जो उत्पन्न हुए भयंकर रोगों के समान हैं वे इन्द्रियों के विषय किसका नाश नहीं करते? सबका नाश करते हैं ॥१४१८।। जो पहले स्त्री और काम भोगोंके दोष कहे हैं वे सब ही दोष इन्द्रियोंके विषयों में होते हैं ऐसा निश्चय करना चाहिये ।।१४१६ ।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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