________________
अनुशिष्टि महाधिकार
पिच्छिलं चवितं दन्तमिश्रितं श्लेष्मणा च यत् । अन मात्रशितं युक्तं पित्तेन कटुकात्मना ।। १०६१।।
अमेष्यसदृशं यांत समीरेण पृथक्कृतम् । ऊर्ध्वं कटुकमश्नाति विगलंतमसौ रसम् ॥ १०६२ ॥ ततोऽस्ति सप्तमे मासे नाभी ह्युत्पलनालवत् । ततो नाभ्या तथा वान्तं तदादते स गर्भगः ।। १०६३ ।।
श्रमेध्यं भक्षयन्नेकं मासं दृष्टो जुगुप्स्यते । निजोपि न कथं गर्भे मासान्नवदशानसौ ॥१०६४।। इति श्राहार ।
[ ३०१
भावार्थ — कोई अपना निजो व्यक्ति भी है और मल मूत्रके स्थानपर थोड़े कालतक रहता है तो हम उस व्यक्तिकी ग्लानि निंदा आदि करने लग जाते हैं किन्तु अपना निज र नौ महिने तक माताओं द्वारा भुक्त उच्छिष्ट अन्नके मध्य रहता है तो यह कैसे ग्लानिकारक नहीं होगा ? फिर भी मूढ जन इस शरीर पर स्नेह करते हैं ।
माता के उदर में शरीर के लिये कैसा आहार मिलता है यह बताते हैं
दांतोंके द्वारा चबाया हुआ कफसे गीला एवं मिश्रित कड़वे पित्तसे युक्त ऐसा माता द्वारा भुक्त अन होता है तथा जो मलके समान है वांत है खल भाग जिसका वायु द्वारा पृथक किया गया है ऐसे आहारका ऊपरसे रस गलता है तब उस रसकी एक एक कड़वी बूंदको गर्भस्थ जीवयुक्त शरीर ग्रहण करता है अर्थात् जब हम माता के उदर में रहते हैं तो माताके खाये हुए झूठे अन्नके रसको ही अपना आहार बनाते हैं ।। १०६१ ।। ॥१०६२।।
छह मास तक तो इसतरह बीतते हैं । सातवें मासमें कमलकी नालकी तरह नाभि स्थानपर नाभि सहित एक नाल उत्पन्न होती है तब वह गर्भस्थ जीवसहित शरीर उस नाभिनाल द्वारा माता द्वारा वांत आहारको ग्रहण करता है ।। १०६३॥ किसीको एक माहतक अशुचिको खाते हुए देखा जाय तो उसकी ग्लानि आती है, भले