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मरणकण्डिका
शोणितप्रस्त्रवद्वारं दुर्गंधं जठराननं । श्रयाच्यजन्मभूतस्य लज्जनीयमशौचकम् ॥ १०६५॥ परो वस्तिमुखस्पर्शी महद्भिनिद्यते यदि उदरद्वारसंस्पर्शी विनिधो न तवा कथम् ।। १०६६। इति जन्म ।
निधानि लज्जनीयानि कर्माणि कुरुते शिशुः । कृत्याकृत्यभामानो नूढधीः ॥ १०६७॥
व्यासव्यं
ही वह व्यक्ति अपना ही हो। तो फिर जो नच या दस मासतक गर्भ में प्रमेध्य भक्षण करता है ऐसा यह शरीर कैसे ग्लानिकारक नहीं होगा ? अर्थात् ऐसे शरीर से ग्लानि आना चाहिये || १०६४॥
गर्भस्थ शरीर के आहारका वर्णन समाप्त |
शरीरका जन्म -
मनुष्यका जन्म जिससे होता है वह रक्त और मूत्र निकलनेका द्वार है, दुर्गंध युक्त है, जहर - उदरका मुख है शब्द द्वारा कहने योग्य नहीं है, लज्जाकारक और अशुचि है ऐसा माताका योनि स्थान है उससे मानवका या शरीरका जन्म होता है ।। १०६५।।
यदि उरका स्पर्श करनेवाला महान् पुरुषों द्वारा निंदनीय होता है तो उदरद्वार स्पर्शी - योनि स्थानका स्पर्श करनेवाला निंदनीय कैसे नहीं होगा ? होगा ही ||१०६६ ।।
जन्म वर्णन समाप्त |
जन्मवृद्धिका कथन करते हैं-
गोदीका बालक - शिशु निंद्य और लज्जाकारक कामोंको करता रहता है वह मूढ़ बुद्धि कार्य और अकार्य तथा सेव्य और असेव्यको नहीं जानता है अर्थात् छोटेसे बालकको यह काम करना योग्य है यह पदार्थ खाने योग्य है ऐसा विचार नहीं रहता है ।। १०६७।।