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अनुशिष्टि महाधिकार
[३० स चर्मपूयमांसास्थिवर्चीमूत्रककादिकं । स्वस्यापरस्य का वक्त्रे क्षिपते विगतत्रपः ॥१०६८।। यत्किचिकुरुते ब्रूते बालः खादत्यलज्जितः । हवते विगतज्ञानः प्रदेशे यत्र तत्र वा ॥१०६६।। घाले यदि कृतं कोऽपि कृत्यं संस्मरति स्वयम् । तदात्मन्यपि निर्वेदं पात्यन्यत्र न किं पुनः ॥१०७०।। अमेध्यस्य कुटो गात्रमध्ये नव पूरिता । प्रमेध्यं सवते छिद्र अमेध्यमिव भाजनम् ॥१०७१॥
इति वृद्धि । शतानि त्रीणि संत्यस्थना मज्जापूर्णानि विग्रहे । संधीनामपि तावन्ति सन्ति सर्वत्र मानुषे ॥१०७२।।
वह निर्लज्ज शिशू अपने या परके मुख में चर्म, हड्डी, पीप, मांस, मल, मूत्र और कफ आदिको डालता है, उसे कुछ ज्ञान या समझ नहीं रहती है ।।१०६८॥ वह शिशु जो कुछ भी कार्यको करता है जो चाहे कुछ भी बोलता है। निर्लज्ज हुआ कुछ भी खाता है । जिसको ज्ञान नहीं है ऐसा यह बालक जहां तहां मलको कर डालता है ॥१०६६।। बाल अवस्था में स्वयं जो अयोग्य कार्य किया था उस कृत्यको यदि कोई स्मरण कर लेवे अथवा उसको कदाचित् प्रयुक्त कृत्य की याद मा जाय तो वैराग्य होता है फिर अन्य स्त्री आदिके विषयमें क्या निर्वेद नहीं होगा? होगा हो । आशय यह है कि हमने स्वयंने बचपन में जो जो गलत कार्य किये उनकी याद आवे तो ग्लानि से मन भर जाता है और उससे किसीको वैराग्य भी हो जाता है । जब स्वयं के बचपन की यह वाता है तो अन्य स्त्री आदिके शरीरसे ग्लानि क्यों नहीं होगी ।।१०७०।। यह शरीर अमेध्य-अशुचिकी कुटी-झोंपड़ी है वह अमेध्यसे ही भरी है और अमेध्यको झरातो है, जैसे अमेध्यसे भरा पात्र यदि छिद्र सहित हो तो अमेध्यको झराता है ।।१०७१।।
शरीर वृद्धि वर्णन समाप्त ।