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मरण कण्डिका
चर्मरोमाणि जायते मासे तस्यात्र सप्तमे । स्पंदोऽष्टमे विनिर्माण नवमे वशमे ततः ।।१०५७॥ यतोऽशुचीनि सर्वाणि कललादीनि कारणम् । वर्गमीय ततो देहो जगुप्स्यो महतां सदा ॥१०५८।।
इति निष्पत्तिः । तिष्ठत्यामाशयस्यात्र ऊर्ध्व पक्वाशयस्य सः । जरायुर्वेष्टितो मासानवालामेध्यमध्यगः ॥१०५६॥ मासमेकं स्थितोऽध्यक्षं वर्चीमध्ये जुगुप्स्यते । निजोऽपि न कथं गर्भ धांते नववश स्थितः ॥१०६०।।
इति क्षेत्रम्।
सातवें मास में चर्म और रोम पाते हैं । आठवें मास में उस गर्भ में हलन चलन होने लगता है और नवमें या दसवें मासमें उदरसे निकलना होता है अर्थात् प्रसूति होतो है ।।१०५७।।
___ इसप्रकार कलल आदि सभी अवस्थायें अशुचि हैं इसीलिये महापुरुषों द्वारा सदा ही यह देह मलराशिके समान जुगुप्सा-ग्लानि करने योग्य है ।।१०५८॥
शरीर निष्पत्तिका वर्णन समाप्त । शरीर निर्माण जहां होता है उस गर्भाशय रूप क्षेत्रको अशुचिताको बताते हैं----माताके उदरमें गर्भकी स्थिति-उसके रहनेका क्षेत्र आमाशय-खाये हुए अन्नका पाचन होनेके पूर्व जो स्थान रहता है वह आमाशय है और पक्वाशय अर्थात् जठरपेटको अग्नि द्वारा जो पक-पच चुका है ऐसे अन्नके रहनेका स्थान पक्वाशय कहलाता है । उस आमाशयके नोचे और पक्वाशयके ऊपर इसतरह बीच में जरायसे वेष्टित वह गर्भ नव मास तक रहता है जो कि अमेध्य मध्यग कहलाता है अर्थात् आमाशय और पक्वाशयके बीच में होनेसे अमेध्य मध्यग कहा जाता है ।।१०५९॥
___ मल स्थानपर एक महिने तक कोई व्यक्ति रहता हुआ भपनेको दिखता है तो वह भले ही अपना हो तो भी ग्लिानि करने योग्य हो जाता है तो फिर नव मास पर्यंत बमन स्थानीय माताके गर्भ में रहा हुआ यह अपना शरीर कैसे ग्लानि करने योग्य नहीं होगा? होगा ही ।।१०६०।।