SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 339
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनुशिष्ट महाधिकार शुद्धः कणिकाघृतपूरक: कणिकाशुद्धितः वर्चोबीजः कथं वेहो विशुद्धयति कदाचन ।। १०५३ ॥ ॥ इति बीजं ॥ दशाहं कलिलोभूतं दशाहं कलुषीकृतं । दशाहं च स्थिरीभूतं बीजं गर्भेऽवतिष्ठते ।। १०५४ ।। मासेन बुटी तरीकृत मांसपेशी च मासेन जायते गर्भपंजरे मासेन पुलकाः पंच मासेनांगानि षष्ठके । उपांगानि च जायंते गर्भवासनिवासिनः ।। १०५५।। ।। १०५६।। [ २९६ गेंहू आर्टसे बना घृतपूरक इसलिये शुद्ध है कि वह शुद्ध आसे बना है किन्तु मलरूप बीजयाला देह कैसे शुद्ध हो सकता है ? अर्थात् घेवरका उपादान शुद्ध है अतः घेवर शुद्ध है और शरीरका उपादान श्रशुद्ध रक्त वीर्य है अतः शरीर अशुद्ध है, वह कदापि शुद्ध नहीं हो सकता ।। १०५३ ।। शरीर के बीजका वर्णन समाप्त । मानव के शरीर के निर्माणका क्रम पांच श्लोकों द्वारा कहते हैं--माता पिताका रजोवीर्यं माताके उदरमें मिश्रित होकर दश दिन तक कलल अवस्थारूप अर्थात् तांबा और चांदीको गलाकर जैसे विलीन किया जाता है वैसे रजोवीर्यका होना कलल अवस्था है । उस रूप दस दिन तक रहता है । पुनः दश दिन तक वह कलुषित रूप रहता है । फिर दस दिन तक स्थिर रूप होकर रहता है ।। १०५४ । । इसप्रकार एक मास पूर्ण होने पर एक मास तक बबूलेको अवस्थाको प्राप्त होता है, पुनः एक मासमें घनीभूत होता है और पुनः गर्भपंजर में उक्त गर्भ मांसपेशी रूप एक महिने में बनता है ।1१०५५ ।। पुनः पांचवें महिने में उस गर्भ में पांच पुलक अर्थात् दो हाथ दो पैर और एक शिर इस रूप पांच अंकुर उक्त मांस पिंडमें निकलते हैं । छठे मासमें अंग और उपांगों की रचना होती है अर्थात् दो हाथ, दो पैर, नितंब, उर, पीठ और मस्तक ये आठ अंग एवं कान, नाक, ओठ, अंगुलो आदि उपांग इनकी रचना छठे मास में होती है ।। १०५६ ।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy