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________________ २९८ ] मरण कण्डिका देहस्थाशुचिनिर्बीजं यतो लोहितरेतसी । ततोऽसावशुचि यो यथा गूथाज्यपुरकः ॥१०५१॥ द्रष्टु घृणायते देहो व!राशिरिष स्फुटम् । स्प्रष्टुमालिगितु भोक्तु तखोजो भुज्यते कथम् ॥१०५२।। निर्दोष बना रहे । जब किसी भी वस्तुका अनुराग तोड़ना है तो उस वस्तु के दोष देखने से ही अनुराग टूट सकता है अन्यथा नहीं । इसलिये पुरुषोंको सर्वोत्कृष्ट व्रत परिपालनार्थ स्त्री संबंधी दोष अवलोकन कर उनसे विरक्ति करनी चाहिये और स्त्रियोंको सर्वोत्कृष्ट व्रत परिपालनार्थ पुरुष संबंधी दोष अवलोकन करके उनसे विरक्ति करनी चाहिये क्योंकि स्त्री और पुरुष दोनोंका एक दूसरेके प्रति आकर्षण होता है, उस आकर्षणको समाप्त करने के लिये एक दूसरेकी संगति वार्तालाप आदि त्याज्य होते हैं । "अंगार सदृशी नारी, नरः घृतोपमो मतः । अस्तु ! शास्त्रके हादको समझकर विवाद छोड़ देना चाहिये और तात्त्विक पैनी दृष्टि अपनाकर स्त्री और पुरुष दोनोंको ही अपने ब्रह्मचर्य का निर्दोष परिपालन करना चाहिये इसी में कल्याण है। स्त्री संबंधी दोषोंका कथन कर उनसे मुनिजनोंकी विरक्ति करायी अब शरीर संबंधी दोषोंको प्रतिपादन उससे वैराग्य कराने हेतु करते हैं-- शरीरके वर्णन करने में ये बारह प्रकरण हैं शरीरका बोज, उसकी निष्पत्ति क्षेत्र, आहार, जन्म, वृद्धि-जन्मक्षणसे लेकर आगे शरीरको वृद्धि होना, अवयव, निर्गम-कर्ण आदिसे मलका निकलना, अशुचित्य, असारता, व्याधि, अनित्यता इनके द्वारा शरीरका वर्णन करेंगे ॥१०५०।। ____ क्रमशः देहके बीजका वर्णन तीन कारिकाओं द्वारा करते हैं-जिसकारणसे शरीरका बीज माताका रक्त और पिताका वीर्य है उस कारणसे वह अशुचि है, जैसे कि मलसे निर्मित घृतपूरक-घेवर ॥१०५१॥ यह शरीर मलोंकी राशि सदृश है उसको देखना भी घृणा कराता है तो स्पर्शन करनेके लिये आलिंगन करने के लिये और भोगनेके लिये किसप्रकार शक्य है ? अर्थात रक्त वीर्यरूप बीजवाले इस घृणित शरीरको कैसे भोग सकते हैं-मैथून सेवन कैसे कर सकते हैं ? ॥१०५२।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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