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सारणादि अधिकार
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पूर्वकारातिदेवेन कृतैः शीतोष्णमारुतः । श्रीवसः पीडपमानोऽपि जग्राहाराधनां सुधीः ॥१६२५।।
गये जिससे चलने में अधिक परिश्रम हुआ और उन्हें तृषा वेदना उत्पन्न हो गई । वे गंगा किनारे आकर एक छायादार वृक्षके नोचे बैठ गये । उन्हें प्याससे व्याकुल देख गंगादेवी पवित्र जलसे भरा हुआ लौटा लाकर बोलो-योगिराज ! मैं ठण्डा जल लाई हूँ आप इसे पीकर अपनी प्यास शांत कीजिए । मुनिराज ने जल हो रहा नहीं लिया और प्राण हरण करने वालो तृषा वेदनाके मात्र ज्ञाता दृष्टा बनते हुये ध्यानारूढ़ हो गये। यह देखकर देवी चकित हुई और विदेह क्षेत्र जाकर समवशरणमें प्रश्न किया कि जब मुनिराज प्यासे हैं तो जल ग्रहण क्यों नहीं करते ? वहाँ गणधर देवने उत्तर दिया कि दिगम्बर साधु न तो असमय भोजन पान ग्रहण करते हैं और न देवों द्वारा दिया गया आहार आदि ही ग्रहण करते हैं । यह सुनकर देवो बहुत प्रभावित हुई और उसने मुनिराजको शांति प्राप्त कराने हेतु उनके चारों ओर सुगन्धित और ठण्डे जलको वर्षा प्रारम्भ कर दी । यहाँ मुनिराज ने आत्मोत्थ अनुपम सुखके रसास्वाद द्वारा कर्मोत्पन्न तषा बेदना पर विजय प्राप्त की और चार घातिया कर्माका नाश करके केवल ज्ञान प्राप्त किया ।
कथा समाप्त । श्रीदत नामके बुद्धिमान् मुनिराज ध्यान में स्थित थे उस समय पूर्व जन्मके बैरीने शीतवायु एवं उष्णवायु द्वारा बड़ी भारी पीड़ा दिये जाने पर उन्होंने सम्यक्त्व आदि चार आराधनाओंको ग्रहण किया था ।।१६२५।।
श्रीदत्तमुनिको कथाइलावर्धन नगरीके राजाका नाम जितशत्रु था। उनकी इला नामको रानो थी जिससे श्रीदत्त नामक पुत्रने जन्म लिया । श्रीदत्तकुमार का विवाह अयोध्याके राजा अंशुमान की पुत्री अंशुमतोसे हुआ था । अंशुमतीने एक तोता पाल रखा था। चौपड़ आदि खेलते हुए जब राजा विजयो होता तब तो तोता एक रेखा खींचता और जब रानी जीतती थी तब चालाको से दो रेखाएँ खींच देता था। उसकी यह शरारत दो चार बार तो राजाने सहन करली आखिर उसे गुस्सा आ गया और उसने तोतेकी