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मरणकण्डिका
मारुतं मकं तापं वह्नितप्तं शिलातलम् । सोढ़वा वृषभसेनोऽपि स्वार्थ प्रापदनाकुलः ॥ १६२६।।
गरदन मरोड़ दो। तोता मरकर व्यन्तर देव हुआ । श्रीदत्त राजाको एक दिन बादलकी टुकड़ी को छिन्न-भिन्न होते देखकर वैराग्य हो गया और उन्होंने संसार परिभ्रमणका अन्त करने वाली जैनेश्वरी दीक्षा धारण करलो । अनेक प्रकारके कठोर तपश्चरण करते हुए और अनेक देशों में विहार करते हुए श्रीदत्त मुनिराज इलावर्धन नगरी आये और नगर के बाहर कायोत्सर्ग ध्यान से खड़े हो गये । ठण्ड कड़ाके को पड़ रही थी । उसी समय शुकचर व्यन्तर देवने पूर्व बैरके कारण मुनिराज पर घोर उपसर्ग प्रारम्भ कर दिया। वैसे हो ठण्डका समय था और उस देवने शरीरको छिन्न-भिन्न कर देनेवाली खूब ठण्डी हवा चलाई, पानी बरसागर तथा खूब ओले गिरा । पर मृतिराजने अपने धैर्य रूपी गर्भगृहमे बैठकर तथा समता रूपो कपाट बन्द करके संयमादि गुण रत्नोंको उस जल के प्रवाह में नहीं बहने दिया, उसके फलस्वरूप वे उसी समय केवलज्ञानको प्राप्त करते हुए मोक्ष पधारे ।
कथा समाप्त ।
वृषभसेन नामके मुनिराज शिला पर ध्यान करते थे किसी दिन गरमी में उस शिलाको किसीने अग्निसे तपाया । उस अग्निवत् तप्त हुई शिलाका ताप तथा उष्ण वायुका ताप सहन करके भी अनाकुल भावयुक्त हो आराधनाको उन्होंने प्राप्त किया था ।। १६२६।।
वृषभसेन मुनिकी कथा—
उज्जैन के राजा प्रद्योत एक दिन हाथी पर बैठकर हाथी पकड़नेके लिये जंगल की ओर जा रहे थे | रास्ते में हाथो उन्मत हो उठा और इन्हें भगाकर बहुत दूर गया | राजा प्रद्योत एक वृक्षकी डाल पकड़कर ज्यों त्यों बचे । प्यास से व्याकुल चलते हुवे ये खेट ग्राम के कुए पर पहुँचे । उसी समय जल भरने के निमित्त आई हुई जिनपाल की पुत्रो जिनदत्ताने उन्हें जल पिलाया और पितासे जाकर सब समाचार कह दिये । "ये कोई महापुरुष हैं" ऐसा विचारकर जिनपाल उन्हें आदरसत्कार पूर्वक अपने घर ले गया और जिनदत्ता के साथ उसकी शादी कर दी। जिनदत्ताको पट्टरानीके पदपर नियुक्त कर राजा सुखसे रहने लगा । समय पाकर उन दोनों के वृषभसेन नामका