________________
सारणादि अधिकार
अग्निराजसुतः शक्त्या विद्धः क्रौंचेन संयतः ।
रोहेडकपुरे सोढ़या देवीमाराधनां श्रितः ।। १६२७ ।।
[ ४६९
पुत्र हुवा | वृषभसेन जब आठ वर्ष के थे तब राजा प्रद्योत पुत्रको राज्य भार देकर दीक्षा लेना चाहते थे । पुत्रने दीक्षा लेनेका कारण पूछा। पिताने कहा- बेटा ! राज्य का भोग भोगते हुवे सच्चे सुख की प्राप्ति नहीं होतो, उसके लिये तपश्चरण आवश्यक है । सच्चे सुखकी बात सुनकर बहुत समझाए जानेपर भी पुत्रने इन्द्रिय सुखोंके कारणभूत राज्यको ग्रहण नहीं किया और पिताके साथ ही उसने भी जिनदीक्षा धारण कर ली । वृषभसेन मुनिराज तपस्या करते हुवे अकेले ही अनेक देशों में घूमते हुए कौशाम्बी नगरी में आये और छोटी सी पहाड़ी पर ठहर गये । गर्मीका समय था, धूप तेज पड़ रही थी । मुनिराज एक पवित्र शिलापर बैठकर ध्यान करते थे । कड़ी धूपमें इस प्रकारकी योग साधना तथा आत्मतेजसे उनके शरीरका सौन्दर्य इतना देदीप्यमान हो उठा कि लोगों के मन में उनकी श्रद्धा अति दृढ़ होतो गया और जैनधर्मका प्रभाव वृद्धिगत होने लगा । एक दिन महाराज जब शहर में भिक्षार्थ गये थे तब एक जैनधर्म द्वेषी बौद्ध भिक्षुने दुष्टता से महाराजके उस ध्यान करनेके लिये बैठनेको शिलाको अग्नि तपा दिया । मुनिराज आहारसे लौटे शिला को संतप्त देख समझ गये कि यह उपसर्ग आया है । उन घीर मुनिराजने उसी तप्त शिला पर आरूढ़ हो समाधिपूर्वक आराधनाको साधते हुए प्राण त्याग किया और उत्तमगति प्राप्त की ।
कथा समाप्त ।
अग्नि नामके राजाके पुत्र कार्तिकेय नामके मुनिने रोहेडक नामके नगर में क्रौंच नामके व्यक्ति द्वारा शक्ति नामके शस्त्र द्वारा घायल किये जानेपर भी उसको सहन करते हुए आराधनादेवोका आश्रय लिया था अर्थात् समाधि धारण की थो ।। १६२७॥
कार्तिकेय मुनिको कथा
राजा अग्निदत्त के वीरवती रानीसे कृत्तिका नामको पुत्रो हुई । जब वह यौवन वती हुई तो राजा उसपर मोहित हो गया । उसने छलसे राज सभा में प्रश्न किया कि राजमहल में जो भी पदार्थ हैं उन सबका स्वामी कौन होता है ? मंत्री आदिने कहा आप ही तो स्वामी हैं । किन्तु वहांपर उपस्थित जैन मुनिने कहा राजन् ! कन्याओंको