SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 510
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरणकण्डिका - -- -. कांकद्यां चंडवेगेन छिन्ननिःशेषधिग्रहः । विषह्याभयघोषोऽपि पीडामाराधनां गतः ॥१६२८।। छोड़कर और सब पदार्थों के स्वामी आप हैं । राजाको यह मुनि वाक्य रुचा नहीं । रुचता भी कसे ? कामीको कभी भी गुरुके वाक्य रुचते नहीं । राजाने जबरदस्ती अपनी पुत्री कृत्तिकाके साथ विवाह कर लिया। कुछ समय बाद उसके दो संतानें हुई । एक पुत्र और एक पुत्री । यथा समय पुत्री वीरमतीका विवाह रोहेडक नामके नगरके राजा क्रौंचके साथ हुआ । पुत्र कात्तिकेय अभी अविवाहित था। एक दिन मित्रोंके यहाँ नानाके घरसे वस्त्राभूषण आये देख उसने मातासे प्रश्न किया कि हमारे नानाके यहां से वस्त्राभूषण क्यों नहीं आते ? पुत्रका प्रश्न सुनकर माताके हृदयपर मानो वचपात हो हुआ । नयन नीरसे भर आये । माताकी दशा देखकर पुनः कारण पूछा। बहुत हठ करनेपर माताने सब कह डाला कि तुम्हारा पिता ही नाना है, कात्तिकेयका हृदय ग्लानिसे भर गया। उसने कहा माता ! ऐसे कुकृत्यको करते हुए राजा को किसी ने नहीं रोका ? माता ने कहा-जैन मुनिने रोका था किन्तु राजा ने सुना नहीं, उलटे उन मुनिको नगरसे बाहर निकाल दिया । कात्तिकेय का मन वैराग्य युक्त हुआ। उसने वनमें जाकर मुनिराजसे जिनदीक्षा ग्रहण की । क्रमश: विहार करते हुए कातिकेय मूनि रोहेडक नगरी में आये जहां उनकी बहिन राजा क्रौंच से ब्याही था । मुनिराज को राजमार्ग से आते हुए देखकर वीरमतो बहिन ने उन्हें पहिचान लिया और धर्मप्रेम तथा भ्राता प्रेमसे विह्वल हो समीपमें बैठे राजाको बिना पूछे ही वह शीघ्रता से महलसे उतरकर मुनिराजके चरणोंमें गिरो। राजा विधर्मी था, मुनिके स्वरूप को नहीं जानता था । उसने क्रोध में आकर कर्मचारियों को आज्ञा दो कि इस व्यक्ति की चमड़ो चमड़ी छोल डालो। कर्मचारियों द्वारा मुनिराज पर महान् उपसर्ग प्रारंभ हुआ उनका सारा तन छेदा गया किन्तु भेदज्ञानी परम ध्यानमें लीन मुनिराज ने अत्यंत शांत भावसे सल्लेखना पूर्वक प्राण त्याग किया । धन्य है कात्तिकेय मुनिराज जिन्होंने घोर वेदनामें भी आत्मध्यान नहीं छोड़ा। कथा समाप्त । काकंदी नगरी में चंडवेग नामके दुष्ट व्यक्ति द्वारा सारा शरीर बाणोंसे घायल होनेपर भी अभयघोष नामके यतिराजने उस उन पीड़ा को सहनकर आराधनाको प्राप्त किया ॥१६२८।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy