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पंडितांडित मरणाधिकार
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शारीरं मानसं सौख्यं विद्यते यज्जगत्त्रये ।। तद्योगाभावतस्तेषां न मनागपि जायते ॥२२२१।। जानतां पश्यतां तेषां विबाधारहितात्मनाम् । सुखं वर्णयितुं केन शक्यते हतकर्मणाम् ॥२२२२॥ भोगिनो मानवा देवा यत्सुखं भुजतेऽखिलम् । तन्नेषामात्मनीनस्य सुखस्यांशोऽपि विद्यते ॥२२२३।। रूपगंधरसस्पर्शशब्दयंत्सेवितः सुखम् । तवैतदोयसौख्यस्य नानंतांशोऽपि जायते ॥२२२४॥ कालत्रितयभावोनि यानि सौख्यानि विष्टपे । सिद्ध कक्षणसौख्यस्य तानि यांति न तुल्यताम् ।।२२२५॥ रागहेत पराधीनं सवं वैषयिकं सुखम् । स्वाधीनेन विरागेरा सिखसौख्येन नो समम् ।।२२२६।।
तीन लोक में शरीर और मन संबंधी जो भी सुख है वह सिद्धों के शरीर और मनके अभाव हो जाने से किंचित् नहीं होता । किन्तु स्वाभाविक अनंत शाश्वत् सुख होता है ॥२२२१|| संसारके संपूर्ण बाधाओंसे रहित, सर्व लोकालोक को जानने देखने वाले और कर्मों का जिन्होंने नाश किया है ऐसे सिद्धोंके सुखका वर्णन कौन कर सकता है? कोई भी नहीं कर सकता ॥२२२२।।
भोग भमिज जोव, मनुष्य एवं देव जो अखिल इन्द्रियज सुखको भोगते हैं यह इन सिद्धोंके स्वाधीन सुखका अंश मात्र भी नहीं है ।।२२२३।। रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्दों का इन्द्रियों द्वारा सेवन करमेपर जो सुख होता है वह इन सिद्धोंके सुखका अनंतवा भाग भी नहीं है ।।२२२४।। तीनों कालोंमें होनेवाले जो भी सुख इस जगसमें हैं वे सुख सिद्धोंके एक क्षणके सुखके बराबर भी नहीं हैं । अर्थात् सिद्ध के एक क्षणके सुखके साथ अनंतकालसे जो भोग हैं एवं भोगगे, उन सुखोंकी तुलना नहीं हो सकती। क्योंकि संसारस्थ जीवोंका सुख रागद षका कारण है, पराधीन है, पंचेन्द्रियोंके विषयोंसे उत्पन्न होनेवाला है वह स्वाधीन एवं विराग संपन्न सिद्ध प्रभुके सुखके साथ समानताको प्राप्त नहीं हो सकता ।।२२२५।।२२२६।। सिद्धोंका सुख अक्षय, निर्मल, स्वस्थ, जन्ममरण