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मरणकण्डिका
अक्षयं निर्मलं स्वस्थं जन्ममृत्युजरातिगं । सिद्धानां स्थावरं सौख्यमात्मनीनं जनाधितम् ।।२२२७॥ काष्टविनाशन ये गुणाष्टकवेष्टिताः । संतिष्ठन्ते स्थिरीभूताः भवनत्रयविताः ॥२२२८।। संसारार्णवमुत्तीर्णा दुःखनक्रकुलाकुलं । ये सिद्धिसोधमापन्नास्ते सन्तु मम सिद्धये ॥२२२६॥
__छंद-द्रुतदिलंबितभवति पंउितपंडितमृत्युना सपबिसिद्धिचथर्वशतिनी । विमलसौख्यविधानपटीयसी सुभगतव गुणेन निरेनसा ॥२२३०।।
जरासे रहित शाश्वत अपनी प्रात्मासे ही समूत्पन्न एवं सर्व संसारी जोवों द्वारा अचित है ॥२२२७।।
वे सिद्ध परमेष्ठी आठ कर्मोंके नाश हो जाने से पाठ गुणोंसे युक्त होते हैं, संपूर्ण लोकाकाश प्रमाण आत्माके प्रदेश सर्वथा अचल स्थिर होनेसे स्थिरीभूत हैं और तीन लोकके जीवीं द्वारा सदा वंदित हैं ।।२२२८।।
विशेषार्थ-सिद्धोंके आठों कमौका नाश हो चूकता है अतः उन कोंके अभावमे भाठ आत्मिक गुण प्रगट होते हैं । किस कर्मके अभावसे कौनसा गुण प्रगट होता है । सो दिखाते हैं-ज्ञानावरण कर्मके नाशसे केवलज्ञान अनंतजान या ज्ञानगुण प्रगट होता है । दर्शनावरण कर्मके विलयसे केवलदर्शन या दर्शनगुण प्राप्त होता है । वेदनीयके अभावसे अव्याबाध गुण, मोहनीयकर्मके प्रलयसे सम्यक्त्व गुण, आयुके नष्ट होनेसे अवगाहनत्व गुण, नामकर्म विलीन हो जानेसे सूक्ष्मत्वगुण, गोत्रकर्मके अभावसे अगुरुलघु गुण और अंतराय कर्म के नाश हो जानेसे वीर्य अनंतवीर्य प्रगट होता है।
___ अनेक प्रकारके मानसिक शारीरिक आदि दुःख रूपी मगरमच्छोंके समूहसे व्याप्त ऐसे संसाररूपी सागरको जो पार कर चुके हैं और सिद्धिरूप प्रासादको प्राप्त हुए हैं वे सिद्ध भगवंत मेरे सिद्धिके लिये होवे-मुझे सिद्धि प्रदान करें ।।२२२६।।
इसप्रकार सिद्ध परमेष्ठियों का वर्णन पूर्ण हुआ ।