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________________ ६४४ ] मरणकण्डिका न फर्माभावतो भूयो विद्यते विग्रहहः । शरीरं श्रयते जीवः कर्मणा कलुषीकृतः ॥२२१५॥ अधर्मवशतः सिद्धास्तत्र तिष्ठन्ति निश्चलाः । सर्वदाप्यपकर्तासी जीय पुद्गलयोः स्थितेः ॥२२१६॥ लोकमूर्धनि तिष्ठन्ति कालत्रितयतिनं । जानाना वीक्षमाणास्ते द्रव्यपर्यायविस्तरम् ।।२२१७॥ युगपत्केवलालोको लोकं भासयतेऽखिलम् । घनावरणनिमुक्तः स्वगोचरमिवाशुमान् ॥२२१८।। रागद्वेषमद क्रोधलोभमोहविजिताः । ते नमस्यास्त्रिलोकस्य धुन्वते कल्मषं स्मृताः ॥२२१६॥ जन्ममृत्युजरारोगशोकातकाविध्याधयः । विध्याताः सकलास्तेषां निर्वाणशरवारिभिः ।।२२२०॥ शरीर को ग्रहण नहीं करते हैं क्योंकि जीव कमसे कलुषित होकर शरीरका आश्रय लेता है। बिना कमके शरीर ग्रहण भी नहीं होता ॥२२१५।। सिद्धालय में सिद्ध भगवन्त अधर्म द्रव्य के निमित्तसे सदा निश्चल रूपसे ठहर जाते हैं (वहांसे कभो चलायमान नहीं होते) क्योंकि जोव और पुद्गलोंको स्थितिका उपकारक सदा अधमंद्रव्य माना गया है ।।२२१६।। तीनों कालोंमें होनेवाले द्रव्योंकी पर्यायोंके विस्तारको जानते और देखते हर वे सिद्ध परमात्मा सदा लोकके मस्तकपर अवस्थित रहते हैं ।।२२१७।। केवलज्ञान और केवलदर्शन रूप प्रकाश ऐसा है कि वह युगपत् समस्त लोकको प्रकाशित करता है, जैसे मेघके आवरणसे रहित हुआ सूर्य अपने विषयभूत जगतको प्रकाशित करता है ।।२२१८।। वे सिद्ध प्रभु राग, द्वेष, मद, क्रोध, लोभ और मोहसे रहित हैं, तीनलोकके द्वारा नमस्कार करने योग्य हैं एवं जीवों के द्वारा स्मृत होने पर उनके पापको नष्ट करने वाले हैं । अर्थात् जो जो भव्यात्मा सिद्धोंका स्मरण करते हैं, उनके पापोंका क्षय हो जाया करता है ।।२२१९।। उन सिद्धोंके जन्म, मरण, जरा, रोग, शोक, पीड़ा आदि सर्व व्याधि निर्वाण रूप जलधारा शांत हो चुकी है ।।२२२०॥
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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