________________
मरण कण्डिका
संविग्नोवृत्तसंपन्नः, शुद्धलेश्यस्तपोधनः । देशान्तरातिथिः साधुः, संवेजयति तद्वतः ॥१५२॥ प्रियधर्माशयः साधु रागमार्थविचक्षणः । भ्रमन्नववित्रस्तः संविग्नं कुरुते परम् ॥१५३।। अघद्यभीर संविग्ने, प्रियधर्मतरेक्षणे । अवधभीरः संविग्नः, प्रियधर्मतरोऽस्ति सः ॥१५४।।
निर्वाण कल्याण भूमिका दर्शन हो जाता है, उन पवित्र स्थलों के दर्शन से सम्यक्त्व में निर्मलता आती है ।।१५१।।
अर्थ-देश देशान्तर का अतिथि होने वाला साधु वैराग्य सम्पन्न हो जाता है, बत चारित्र को शुद्धि युक्त होता है, लेश्या को शुद्धि होती है अर्थात् पोत आदि शुभ लेश्या में शुद्धि बढ़ जाती है । तप बढ़ता है ॥१५२।।
विशेषार्थ-देश देशमें बिहार करने से अनेक तपस्वी, महात्मा, दृढ़ चारित्री, समताधारी साधुजनों के आचरण देखने को मिलते हैं इससे अपने में विचार होता है कि अहो ! यह साधु कितना तपस्वी है समता रस में मानों मज्जन कर रहा है, हम लोग इसप्रकार निरतित्रार आचरण नहीं करते हैं हमको अवश्य ही ऐसी लेश्याविशुद्धि प्राप्त करनी चाहिये । ये साधुमण भी तो इसी वर्तमान कालमें निर्दोष चारित्र संपन्न हैं। इसप्रकार विशिष्ट साधुजनों के दर्शन से अपने में तप वैराग्य आदिको वृद्धि होती है अतः विहार करते रहना चाहिये ।
अर्थ-अनियत विहार करने वाला साधु प्रियधर्मा अर्यात् उत्तम क्षमा आदि धर्म में प्रीति युक्त होता है, आगम के अर्थ में कुशल होता है, विहार से अभ्यस्त होने से निरालस होता है, तथा प्रतिकूल देशादि से होने वाले त्रास को सहन करते रहने से कहीं व्याकुलचित्त नहीं होता और इसतरह अपने को अतिशय रूपसे वैराग्य शील करता है ।।१५३।।
अर्थ-देशान्तर में विहार करते समय पापों से अत्यन्त भयभोत, वैराग्यवान जिसको दस लक्षण धर्म अतिशय प्रिय है ऐसे महान् साधु के दर्शन होते हैं, उस साध.. को देख कर यह साधु स्वयं भी पापभीरू, वैराग्य संपन्न और धर्म में प्रीति करने वाला बन जाता है ।।१५४।।