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भक्तप्रत्याख्यानमरण अहं आदि अधिकार
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शीतातप क्षुधातृष्णा, निषद्याद्याः परीषहाः । यतिनाटाटयमानेन, समस्ताः सन्ति भाविताः ॥१५५॥ श्रृण्वतोभूरिसूरीणां, व्याख्यां नानाशिनीम् । देशांतरातिथेः साधो, रस्ति सूत्रार्शकौशलम् ॥१५६।। विनिष्क्रम प्रवेशादि, समाचार विचक्षणः । सुरीणां बहुभेदानां, जायते पादसेवया ॥१५७।। कर्तव्या यत्नतः शिक्षा, प्राणः कण्ठगतैरपि । आगमार्थ समाचार, प्रभृतीनां तपस्विना ॥१५॥ प्रासुके सुलभाहारं, संयतै गर्गोचरीकृतम् । सल्लेखनोचितं क्षेत्रं, पश्यत्यनियतस्थितिः ।।१५।।
अर्थ-देश देशमें विहार करते हुए साधु द्वारा शीत, उष्ण, क्षुधा, तृषा, निषद्या आदि समस्त परीषह सहन किये जाते हैं ॥१५५।।
अर्थ-देश देशान्तर का अतिथि होता हुआ साधु अनेक आचार्यों के द्वारा की गयी शास्त्रों की नाना अर्थों की व्याख्या सुनता है और उससे सूत्रार्थ करने में उसको बड़ी कुशलता प्राप्त होती है ।।१५६।।
अर्थ-विहार करते हुए साधुओं को बहुत प्रकारके आचार्यों को चरण सेवा करनेका अवसर मिलता है, उन विभिन्न आचार्य संघोंमें बसतिका से निकलना एवं प्रवेश करना, आहारार्थ गमन, उठना, बैठना, प्रश्न करना सामायिक प्रतिक्रमण आदि क्रियायें इन सब समाचार विधियों को अबलोकन करने का अवसर प्राप्त होता है, और उससे साधजन को जो दस प्रकार को समाचार विधि है उसमें कुशलता प्राप्त होती है ॥१५७।।
अर्थ-कण्ठगत प्राण होने पर भी साधुओं को आगमार्थ समाचार आदि सम्बन्धी शिक्षा प्रयत्न पूर्वक ग्रहण करनी चाहिये ।।१५८।।
अर्थ-अनियत विहार करने वाले साधुको संयतजनों के द्वारा गोचरी के योग्य प्रासुक आहार सुलभ कहाँ पर है इस बातका ज्ञान हो जाता है अर्थात् इस क्षेत्रदेशके मनुष्य साधुको निर्दोष आहार देते हैं साधुको चर्या का इस देश में ज्ञान है