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________________ ५२ ] मरण कण्डिका श्रावके नगरे ग्रामे, वसतावपधौ गणे । सर्वत्राप्रतिबद्धोऽस्ति, योगी देशान्तरातिथिः ॥१६०॥ इति अनियत विहारः । पर्याय रक्षितो दीर्घ, वितीर्णा याचना मया । शिष्या निष्पादिताः श्रेयो, विधातुमधुनोचितम् ॥१६॥ इत्यादि बातोंको जानकारी विहार करते रहने से मिलती है, तथा कौनसा क्षेत्र सल्लेखना के लिये उचित होगा इसका भी बोक हो जाता है । १५६।। अर्थ-देश देश में पक्षीवत् अनियत विहारी साधु किसी श्रावक विशेष में प्रतिबद्ध-मोहित स्नेहयुक्त नहीं हो पाता क्योंकि आज यहां और कल वहां जिसे रहना है उसे किसी व्यक्ति से लगाव नहीं रहता। तथा किसी नगर ग्राम आदि में एवं वसतिका उपकरण संघ आदि में अनियत विहारी मुनिका स्नेह-मोह नहीं होता वह तो सर्वत्र अप्रतिबद्ध-लमाव रहित ही गमनागमन करता है ।।१६०।। भावार्थ-एक जगह अधिक रहने से वहां के श्रावक बसति आदि में मोह हो जाया करता है । अत: साधुओं को आज्ञा है कि वे सर्वत्र धर्म योग्य देश में विहार करते रहे । इसप्रकार अनियत विहार नामका छठा अधिकार पूर्ण हुआ । ७. परिणाम अधिकार अर्थ-साधु विचार करता है कि मैंने दीर्घकाल तक अपने रत्नत्रय पर्याय की सुरक्षा को है स्वाध्याय वाचना धर्मोपदेश आदिका योग्य पात्र में वितरण किया। शिष्यों का संग्रह, उनका शिक्षा आदि द्वारा निष्पन्न करना आदि कर लिया, अब इस समय मुझे अपना हित विशेष रूपसे करना है ।।१६१।। भावार्थ-दिगम्बर साधु अपनी आत्मसाधना करते हुए अन्य भव्य जीवोंको मोक्ष मार्ग में लगाते हैं, शिष्यों का निर्माण करना, उन्हें सम्पूर्ण शास्त्रों में निपुण करना, इत्यादि धर्मोको बढ़ाने वाले कार्य करते हैं, जब आयु का अन्तिम भाग आता है तब वे विचार करते हैं कि अब परहित से हटकर हमें स्वहित में ही प्रवृत्ति करना है, हमने अपने जीवन में यथाशक्य मोक्षमार्ग को वृद्धि को। अब तो सल्लेखना करना
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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