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श्राराधनास्तवनम्
स्रग्धरा
यामाराध्याशु गंता शकलितविपदः पंचकल्याणलक्ष्मीम् । प्राप्यां पुण्यपापां त्रिभुवनपतिभिनिर्मितां भक्तिमद्भिः ॥ सम्यक्त्वज्ञामष्टिप्रमुखगुणमणिभ्राजितां यान्ति मुक्ति । सा वंद्या हृद्यविधिलसतु हृदये सर्वदाराधना वः ॥३॥
स्रग्धरा
या सौभाग्यं विधत्ते भवति भवभिदे भक्तितः सेव्यमाना । या छिन्ते मोहस्यं भुवनभवभृतां साध्वसं ध्वंसयंती ॥ यां चानासाद्य देही भ्रमति भववने सूरिभावाद्विरौद्र । सा भद्वाराधना वो भक्त भगवती वंभवोद्भावनाय ॥४॥ छंद - स्रग्धरा-
या कामको लोभप्रभृतिबहुविधग्रहनक्रावकीर्णा । संसारापार सिंधोर्भवमरणजरार्तगर्तादुपेत्य
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इत्युत्तीर्य सिद्धि सपदि भवभूतः शाश्वतानंतसोध्यम् । भन्यंराराधनानो' जगणकलिता नित्यमारुह्यतां सा ॥५॥
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जिसकी आराधना करके विपत्तिका प्रलयकर भव्य जोव पंच कल्याणक रूप लक्ष्मी को शीघ्र ही प्राप्त कर चुके हैं, भक्तिमान पुण्यशाली ऐसे तीन लोकके अधिपतिदेवेन्द्र नरेन्द्र द्वारा जो प्राप्त करने योग्य है, निर्दोष है, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन आदि प्रमुख गुणरूप मणियोंसे अलंकृत है ऐसी मुक्तिको भव्य जीव जिसके प्रसादसे प्राप्त करते हैं श्रेष्ठ विद्याओंसे युक्त जीवों द्वारा जो वंदनीय है वह आराधना आप लोगों के हृदय में सदा शोभायमान होवे ||३|| जो सौभाग्यको करती है, भक्तिसे सेवित करनेपर संसार का छेद करती है, मोहरूप दैत्यको छेदती है, संसारके जीवोंके भयको नष्ट करती है जिसको प्राप्त नहीं करनेसे आजतक यह जीव विकार भावरूप भयानक पर्वत वाले संसार रूप वन में घूमता रहा है, ऐसी यह महा कल्याणकारी भगवती आराधना आपके वंभवोंके उत्पन्न करने के लिये होवे ||४|
काम, क्रोध, लोभ प्रभृति बहुत प्रकार के ग्राह, नक्ररूप क्रूर जलचर जंतुओंसे जो व्याप्त है ऐसा संसार रूप अपार सागर है उस संसार सागरमें होनेवाला जन्मजरा