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मरणकण्डिका
ग्रंथो महाभयं नृणामेकरध्ये सहोदरौ । ग्रंथार्थ हिसित बुद्धि पत्तोऽकाष्टो परस्परम् ॥११८३॥ तस्कराणां भयं जातमभ्योन्यविणापिनाम् । मोमांसे विषं घोरं यतः संयोज्य मारिताः ॥११८४॥
मनुष्योंके लिये परिग्रह महाभय रूप है देखो ! द रश्मा नापळे ग्राम में दो सगे भाई थे, उन्होंने परिग्रहके लिये एक दूसरेको मारनेकी बुद्धि की थी ॥११८३॥
सगे दो भाईयोंको कथादशार्ण देश में एक रथ नामका नगर था उसमें दो सगे भाई रहते थे । दुर्भाग्य वश उनके दरिद्रता आयो । दोनों अपने मामा के समीप गये उन्होंने आठ रत्न दिये और कहा कि इनसे आप अपनी आजीविका का साधन बनाओ। दोनों भाई धनदेव और धनमित्र अपने नगर की ओर आ रहे थे । मार्ग में रत्नोंको अकेले ही हड़पने को दुर्भावना से एक दूसरे को मार डालने का विचार आया, किन्तु कुछ दूर जानेपर सुबुद्धि आयी और बरे विचार एक दूसरेको बताकर उन्होंने रत्नों को नदोमें फेंक दिया। उन रत्नों को बड़ी मछलीने निगल लिया । धीवरने जब उस मछली को चीरा तो उसके पेट से वे रत्न निकले । किन्तु धोवर उनकी कीमत नहीं जानता था अतः बाजार में बेचने आया, कर्म संयोग वश उन धनदेव धनपुत्र की माताने उनको खरीदा, जब उसे ये रत्न हैं ऐसा मालम हुआ तो उसके लोभमें पुत्रोंको मारना चाहा, फिर पश्चात्ताप कर उसने उन रत्नोंको अपनी लड़को धनमित्राको दिया, रत्नोंको पाते ही उसके भी भाव सबको मारने के हए । फिर सम्हल कर माताको मनका बुरा भाव बताया। सबने बैठकर विचार किया कि अहो ! यह रत्न आदि धन परिग्रह अत्यंत दुःखप्रद है, यह संसार असार है धिक मोह माया को । ऐसा विचार कर वे सभी दीक्षित होगये। इसप्रकार परिग्रहके ममत्वसे भाईयोंकी बुद्धि भ्रष्ट हुई थी।
सगे दो भाईयोंको कथा समाप्त । एक दुसरेके हिस्सेका धन ग्रहण करने की इच्छा वाले चोरोंको आपसमें भय हआ और उन्होंने शराब तथा मांसमें घोर विष मिलाकर एक दूसरेको मार डाला ॥११८४॥