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अनुशिष्टि महाधिकार
[ ३३५ संगो महाभयं यस्माच्छाधकेण कथितः । निहितेऽपहृते द्रव्ये तनुजेन तपोधनः ॥११८५।।
चोरोंको कथाधनदत्त, धनभित्र आदि बहुतसे सेठके पुत्र व्यापारके लिये बहुतसा धन लेकर एकवनसे जा रहे थे। मागमें चोरोंने उन्हें लूट लिया । विशाल धनको प्राप्त कर उन चोरोंकी नियत बिगड़ गयो सबके मन में भाव आया कि अकेलेके हाथ सब धन आ जाय । रात्रिमें भोजन करने बैठे, उन्हीं में से एक ने खाने के लिये लाये गये निंद्य मांस में विष मिला दिया । सबने उसे खा लिया यहांतक कि जिसने विष मिलाया था उसने भी भ्रमवश खा लिया एक सागरदत्त नामके वैश्यपुत्रने नहीं खाया था बह बच गया उसने धन लोभके दुष्परिणामको साक्षात् देखा था इससे उसको वैराग्य हुआ । सब धन वहीं पड़ा रहा, एक बचा हुआ सागरदत्त मुनिके निकट दीक्षित हो गया। इसप्रकार एक घन लिप्सा सर्व चोरोंके मृत्युका कारण बनीं ऐसा जानकर धनकी लालसा का त्याग करना चाहिये।
कथा समाप्त । परिग्रह ही महाभय है क्योंकि एक श्रावक द्वारा साधुको धनके कारण हो कष्ट दिया गया था, उस श्रावकने कहींपर धन गाड रखा था उसको पुत्रने चुरा लिया जिससे उक्त श्रावकको मुनिपर शंका हुई थी अतः अनेक प्रकारको कथा द्वारा मुनिको व्याकुल किया था ।।११८५।।
धनलोभी जिनदत्तकी कथाउज्जैन नगरी में एक जिनदत्त नामका सेठ था उसके पुत्रका नाम कुबेरदत्त था । एक दिन नगरके श्मशान में मणिमाली यति मृतक शय्यासे ध्यान कर रहे थे । एक कापालिक विद्या सिद्धि के लिये वहां आया और मुनिराजको मृतक समझकर उनके मस्तकका तथा अन्य दो शवोंके मस्तकोंका चूल्हा बनाकर उसने आग जलायी उस चूल्हे पर हांडो चढ़ाकर चावल पकाने लगा। मुनिराज आत्मध्यानमें लोन हुए वे आत्मा और शरीरके पृथक् पृथक्पनेका विचार करने लगे किन्तु उनका मस्तक प्रकस्मात हिल गया उससे हांडी गिर पड़ी चूल्हा बुझ गया और कापालिक डरकर भाग गया।
प्रातः हुआ किसीने मूनिको कष्टमय स्थितिमें देखा और जिनदत्त सेठको वह समाचार . दिया । सेठ अतिशीघ्र वहां पहुंचा मुनिको स्थितिको देखकर उसको बहुत दुःख हुआ