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मरणकण्डिका
वर्ष वातं क्षुधं तृष्णां तापं शीतं श्रमं क्लमं । दुर्भुत सहतेऽर्थार्थी भार वहति पुष्कलं ।।११८६।।
छंद-द्रुत विलंबित-- कृषति दोव्यति सीव्यसि खिद्यते बपति पश्यति त्रस्यति याचते ।
धमति धावति वल्गति सेवते सवति ताम्यति नृत्यति गायते ॥११८७॥ .-- तत्काल मुनिराजको अपने गृह चैत्यालयमें ले गया चतुर वैद्यकी सलाहसे लाक्षामूल तेल द्वारा मुनिराजका जला हुआ मस्तक ठोक हो गया जिनदत्तने गुरुकी महान वैयावृत्यकी चातुर्मासका समय अत्यंत निकट था अतः सेठके प्रार्थनापर मुनिने गृह चैत्यालयमें वर्षायोग स्थापित किया । किसी दिन अपने व्यसनी पुत्र कुबेरदत्त से धनकी रक्षा हेतु सेठने मुनिराजके बैठने के स्थानमें धनको माड दिया । इस बातको कुबेरदत्तन छिपकर देखा था, अतः मौका पाकर उसने धनको उक्त स्थानसे निकाल कर अन्यत्र गाड दिया । वर्षायोग पूर्ण होनेपर मुनिराज विहार करते हैं, सेठने उनके जाते ही धनको खोदकर देखा तो मिला नहीं । अब उसको भ्रम हुआ कि मुनिने इस धनको चुराया है वह मुनिराजके निकट जंगल में पहुंच जाता है और कथाओंके माध्यमसे धन हरणकी बात कहता है मुनिराज भी समझ जाते हैं और वे भी कथाओं द्वारा अपनी निर्दोषता कहते हैं। उन कथाओंके नाम-दूत, ब्राह्मण, व्याघ्र, बैल, हाथी, राजपुत्र, पथिक, राजा, सुनार, वानर, नेवला, वैद्य, तपस्वी, चूतवन लोक और सर्प । इन कथाओंको सेठ पुत्र कुबेरदत्त भी सुन रहा था । पिताके मनिराजके प्रति होनेवाले दुर्भावको जानकर उसको वैराग्य हुआ उसने पिताको सब सत्य वृत्तांत कह दिया कि मैंने धनको खोदके निकाला है। उसने धन लिप्साकी बड़ी भारो निंदा की जिनदत्त को भी बड़ा पश्चात्ताप हुआ। दोनों पिता पुत्रने मुनिराजसे क्षमा मांगी और उन्हींके निकट जिन दीक्षा ग्रहण की।
कथा समाप्त । वर्णकी बाधा वायुको बाधा, भूख, प्यास, धूप, हिम, श्रम, वलम और खोटा भोजन इन सबको धन का इच्छुक पुरुष सहता है तथा बहुतसे भारको ढोता है अर्थात् कुलो बनकर भार ढोकर धन कमाता है ॥११८६।।
धनार्थी पुरुष खेती करता है, क्रीड़ा करता है, वस्त्रको सीता है, खेदित होता है, धान्य बोता है, देखता है, घबराता है, याचना करता है, अग्निको धोंकता है, दौड़ता है,