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अनुशिष्टि महाधिकार
छंद--द्रुतविलंबित
पठति जल्पति लुठति लुंपते हरति रुष्यति नश्यति लिख्यति । रजति कस्यति वहति सिचति मुह्यति वंदते ॥११८६ |
छंद द्रुतविलंबित
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श्वसिति रोदिति माद्यति लज्जते हसति तृष्यति दृष्यति नृत्यति । तुति गृध्यति रज्यति सज्जते द्रविण लुब्धमनाः कुरुते न किम् ।।११८६ | कोणालि वयते वस्त्रं गोमहिष्यादि रक्षति ।
अर्थार्थी लोहकाष्टास्थिस्वर्णकर्म करोति ना ।। ११६० ।।
छंद द्रुतविलंबित
रुधिरमदुर्गममाहवं निशितशस्त्रविदारितकु जरं । हरिपुरस्सर जंतुविभीषणं भ्रमति विसमता गहनं वनम् ॥ १११ ॥
बकने लगता है, सेवा कर्म करता है । रोता है, दुःखी होता है, नाचता है, गाता है. ११८७।। पढ़ता है, चिल्लाता है, किसोका छन डाकू बनकर लूटता है, छिपता है, अपहरण करता है, रोष करता है, संतुष्ट होता है । नष्ट हो जाना चाहता है | रक्षक बनता है, कृषक बनता है, जलता है, संचय करता है, मोहित होता है, धनके लिये किसकी वंदना करता है ।।११८८ ।। जोर जोरसे श्वास लेता है, रोता है, मत्त होता है, लज्जित होता है, हँसता है, तृष्णा करता है, दर्प करता है, नाचता है, खेद करता है, वृद्धि करता है, रंज करता है, लगा रहता है इसप्रकार धनमें लुब्ध हुआ है मन जिसका ऐसा पुरुष क्या क्या नहीं करता ? ।। ११८९ ।। धनार्थी पुरुष वस्त्रको बेचता है, बुनता है, गो महिष आदि को रक्षा करता है, लोहकर्म, काष्ट कर्म, अस्थि कर्म, सुवर्ण कर्म करता है ।। ११९० ।। धनार्थी रक्तके कीचड़से जो दुर्गम है ऐसे रणमें प्रवेश करता है, कैसा है रण ? पैने पैने शस्त्रोंसे विदारित किया है हाथियोंको जहां तथा धनमें है मन जिसका ऐसा वह पुरुष शेर आदि बहुत से जंगलो पशुओंसे भीषण ऐसे गहन वनमें भ्रमण करता है ।। ११६१।। विशाल लहरों द्वारा मानो आकाशको छू रहा है ऐसे समुद्र में जो कि मकर श्रादि जलचर जीवोंसे व्याप्त है उसमें जीवनसे भी निस्पृह हुआ और धनार्जन में ही आसक्त हुआ व्यक्ति प्रवेश करता है ।। ११६२ ।।