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________________ ३३८ ] मरणकण्डिका छंद द त बिलनितविपुलवीचिविगाढनभस्तलं मकरपूर्वकचारसंकुलम् । जलनिधि प्रविणार्जनलालसोविशति जोवितनिस्पृहमानसः ॥११६२।। छंद द्र तविलंबितनिधनमच्छति तत्र यदेकको भवति कस्य तवा धनजितम् । विविधविघ्नविनाशितविग्रहो जनतयाखिलयापि जुगुप्सते ॥११६३॥ __छंद भुजंग प्रयातलुनीते पुनीते पुनीते कृणोते न बत्ते न भुक्तं न शेते न वित्त । सदाचारवृत्ते बंहितचित्तो धनार्थी विधेयं विधत्ते निकृष्टम् ।।११६४।। गिरिकंबरदुर्गाणि भोषणानि विगाहते । अकृत्यमपि वित्तार्थ कुरते कर्म मूढवीः ।।११६५॥ जायते निनो वश्यः कुलीनोऽपि महामपि । अपमानं धनाकांक्षी सहते मानवानपि ॥११६६॥ कोपिल्यनगरेऽर्थार्थ परितापं दुरुत्तरं । प्राप्य पिण्याकगंधोऽपारुलल्लकं नरकं कुधीः ॥११६७।। धनार्थी पुरुष अकेला ही धन कमाता हुआ जब मृत्युको प्राप्त होता है तब । उसका यह अजित धन किसका होता है ? विविध विघ्न बाधाओं द्वारा नष्ट कर डाला है अपने शरीरको जिसने ऐसा बह पुरुष तो अखिल जनता द्वारा निंदनीय हो जाता है ॥११६३।। धनार्थी पुरुष खेतमें फसलको काटता है, धुनता है, खलियान साफ करता है, धान्य बेचता है, अपना धन धान्य न किसीको देता है और न स्वयं खाता है, न सोता है और न कुछ जान पाता है, वह धनार्थी तो सदाचार वृत्ति से बहिर्भूत चित्तवाला होकर निकृष्ट कार्यको करता है ।।११६४।। धनके लिये मंद बुद्धि पुरुष भोषण गिरि कंदर दुर्ग में प्रवेश करता है, अकृत्यको भी कर डालता है ॥११९५|| धनका आकांक्षी पुरुष धनिकोंके वश में हो जाता है, भले ही स्वयं महान् है, कुलवान् भी है, अभिमानी होकर भी अपमान सहता है ।।११९६।। कांपिल्य नगरमें धन के लिये कठोर परितापको प्राप्त होकर पिण्याकगंध नामका कुबुद्धि पुरुष लल्लक नामके नरकके बिल में गया था ।।११६७॥
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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