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अनुशिष्टि महाधिकार
कुर्वतोऽपि परां चेष्टामर्थलाभो न निश्चितं । संचयते विपुण्यस्य मार्थो लब्धोऽपि जातुचित् ।। ११६८ ।।
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पिण्याकगंधको कथा
कांपिल्य नगर में रत्नप्रभ राजा राज्य करता था उसी नगर में एक पिण्याकगंध नामका सेठ था वह करोड़पति होकर भी अत्यंत लोभो कृपण और मूर्ख था । न स्वयं धनका भोग करता न किसी परिवार जनोंको करने देता । सब कुछ होते हुए भी खल खाया करता इसलिये उसका नाम पिण्याकगंध पड़ा था । पिण्याक खलीको कहते हैं यह सेठ उस पिण्याक को सूंघकर गंध लेकर खाया करता अतः पिण्याकगंध नामसे पुकारा जाता था । एक दिन राजाने तालाबका निर्माण कराया, उसकी खुदाई में एक नौकरको लोकी संदूक में बहुतसी सलाइयां मिली। नौकरने एक एक करके पिण्याकके यहां उन सलाइयोंको बेचा। पहले सलाई लेते समय तो उस सेठको मालूम नहीं पड़ा कि यह सलाई किस धातुको है लोहे को समझकर खरीदी । पोछे ज्ञात हुआ किन्तु लोभवश लोहे के मूल्य में खरीदता रहा । किसी दिन वह अन्यत्र गया हुआ था जब नौकर सलाई बेचने आया तो संठके पुत्रने सलाई खरोदने को मना किया। नौकर दूसरी जगह बेचनेको गया इतने में सिपाहीने उसे पकड़ लिया और राजाके समक्ष उपस्थित किया । नौकर ने सब बात बतादी कि पिण्याकगंधको सलाई बेची है और लोहे भाव में बेची है । राजाको क्रोध आया उसने सेठका सारा धन छीन लिया । जब पिण्याकगंधको अपने घनका नाश होना मालूम हुआ तो अत्यंत रौद्रभावसे उसने कुपित होकर अपने पैर काट डाले कि इन पैरोंसे मैं यदि दूसरे ग्राम नहीं जाता तो मेरा धन नहीं लुटता । इसतरह परके कट जाने से तीव्र वेदनाके साथ वह मर गया और छठे नरकके लल्लक नामके तीसरे इन्द्रक बिल में उत्पन्न हुआ। वहांपर भयंकर वेदना सहता रहा । इसप्रकार परिग्रहका मोह महान परितापका कारण है ऐसा जानकर भव्यों को उसका त्याग करना चाहिये ।
पिण्याकगंधकी कथा समाप्त ।
बहुतसा पुरुषार्थ करनेपर भी धनका लाभ होना निश्चित नहीं है तथा पुण्यरहित जीवके कदाचित् कुछ घन हो जाय तो वह संचित नहीं रह पाता नष्ट हो जाता
।। ११६८।। धनका संचय कदाचित् हो भी जाय तो पुरुष कभी तृप्त नहीं होता, जैसे