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अनुशिष्टि महाधिकार
[ ३३३ छंद वंशस्थ -- परिग्रहार्थ परिणहन्ति देहिनो वदत्यसत्यं विदधाति मोषणं । निषेयते स्त्रों श्रयते परिग्रहं न लुब्धबुद्धिः पुरुषः करोतिकिम् ॥११८०।। संज्ञा गौरवपैशुन्य विवादकलहावयः । दोषा ग्रंथेन जन्यते दुनयेनेव सर्वदा ॥११८१॥ क्रोधं लोभं भयं माया विद्वषमरति रतिम् । द्रविणार्थो निशाभुक्ति विदधाति विचेतनः ॥११८२॥
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है उस कारणसे अचेलत्व शब्दसे सर्व परिग्रह त्याग हो अचेलत्व है ऐसा निश्चय होता है ।।११७६।।
संसारी प्राणो परिग्रह के लिये जोवोंका वध करता है, असत्य भाषण करता है, चोरी करता है, स्त्री सेवन करता है, परिग्रहका आश्रय लेता है, इसतरह लोभयुक्त बुद्धिवाला पुरुष क्या गलत कार्य नहीं करता ? सब कुछ पाप करता है ।।११८०।।
संज्ञा--आहारादि को वांछा, गौरव-रस गारव प्रादि तीन प्रकारका दर्प, चुगली, विवाद और कलह आदि दोष परिग्रह द्वारा उत्पन्न किये जाते है, जैसे दुर्नय द्वारा कुनय या अनीतिसे दर्प विवाद आदि दोष होते हैं ।।११८१।।
भावार्थ—परिग्रहके कारण मैं बड़ा हूँ इत्यादि गर्व होता है, धन रक्षा हेतु वर कलह करता है, झूठ चोरी आदि पाप करता है अतः परिग्रह सर्बदोषोंका मूल है ।
धनका इच्छुक जन क्रोध, लोभ, भय, माया द्वेष, अरति, रति और रात्रि भोजन भी मोहित होकर करता है ।।११५२।।
भावार्थ-धनके उपार्जनके लिये किसीसे कुपित होता है कोई धनका नाश न कर देवे चोर न आ जाय इत्यादि भय परिग्रह उत्पन्न करता है । धनको कमाने के लिये उसको बढ़तीके लिये माया जाल को रचता हुआ स्पष्ट रूपसे दिखाई देता है । किसोने धन खर्च आदि किया तो उससे द्वष करने लगता है। रात्रि भोजन भी करने लगता है। वर्तमानमें श्रावक जन तो धनके लिये प्रायः रात्रि भोजन करते हुए दिखाई देते हैं। इसप्रकार परिग्रह सर्व अनर्थ कराता है ।