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मरणकण्डिका
खेलमात्रपरित्यागी शेषसंगी न संयतः । यतोमतमचेलत्वं सर्व ग्रंथोज्झनं ततः ॥११७६॥
त्यागको आवश्यकता नहीं है ? इस प्रकारकी शंकाका आगेकी कारिकामें समाधान करते हैं
आचेलवय नामका जो सूत्र है वह देशामर्शक है, आचेलक्य शब्दको निरुक्ति करते समय 'न चेलं इति अचेल तस्यभाव आचेलक्यं" है इसमें चेल शब्द उपलक्षण रूप है अत: चेल वस्त्र के साथ अन्य परिग्रहका निषेध भी हो जाता है अथवा इस सूत्र में आदि शब्दका लोप हुअा है । जैसे तालप्रलंब सूत्र में हुआ है ।।११७८।।
विशेषार्थ-आचेलक्य, उद्दिष्ट भोजन त्यागी आदि दस स्थिति कल्प हैं। इन सबका विस्तृत वर्णन आगममें पाया जाता है। आचेलक्य शब्दकी निरुक्ति--- "न चेल इति चेल ग्रहणं परिग्रहोपलक्षणं, तेन सकल धन धान्यादि परिग्रह त्यागः गद्यते" अर्थात चेल-वस्त्रका त्याग इस शब्दमें वस्त्र परिग्रहका उपलक्षण है, जो उपलक्षण रूप अर्थ होता है उसमें उक्त शब्द के अर्थ के साथ अन्य उसके समान अर्थका ग्रहण स्वत: हो जाता है । जैसे किसीने कहा "काकेभ्यो रक्षता सपि:" कौवेसे घो को रक्षा करो तो इस वाक्यमें कौवा उपलक्षण है कौवा और कौवेके समान और जो कोई घी को नष्ट करता है उन सभीसे घी को बचाओ । यह अर्थ ध्वनित होता है। ऐसे ही आचेलक्ष्य शब्दमें चेलका त्याग तथा चेल वस्त्र समान अन्य धन धान्य आदिका त्याग भी इसी आचलक्य शब्द में निहित है । इसप्रकार आचेलक्य धारण किया इसका अर्थ समस्त वस्त्र धन प्रादि परिग्रहका त्याग है । अथवा इस आचेलक्य शब्द चेलका निषेध करते समय आदि शब्द लुप्त हुआ समझना चाहिये । जैसे "तालप्रलंब" सूत्रमें प्रादि शब्द लप्त हुआ है । साधुकी योग्य चर्या बताते समय कल्प ग्रंथ में "ताल प्रलंच वनस्पति नहीं खाना चाहिये" "ताल पलंब ण कप्पदि" ऐसा सूत्र है । इसमें ताल शब्द केवल ताड़ वृक्षका वाचक न होकर बनस्पतिके एक देशरूप वृक्ष विशेषका वाचक है । इस सूत्र में आदि शब्दका लोप है । अर्थात् ताल आदि वनस्पतियों का भक्षण नहीं करना चाहिये ऐसा अर्थ इष्ट है । केवल तालवनस्पतिको नहीं खाना ऐसा अर्थ अभीष्ट नहीं है । इसीप्रकार यहां आचेलक्य शब्दमें केवल वस्त्रका निषेध नहीं है किन्तु समस्त परिग्रहका निषेध इष्ट है।
जिसकारणसे वस्त्रका त्याग करे और शेष परिग्रहको रखे तो वह संयत नहीं