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अनुशिष्टि महाधिकार नाभ्यंतरः ससंगस्य साधोः शोधयितुमलः । शक्यते सतुषस्येव तंबुलस्य कदाचन ॥११७५।। उदीयते यदा लोभो रागः संज्ञा च गारवं । शरीरी कुरुते बुद्धि तदादातु परिग्रहम् ॥११७६।। ग्रंथो लोकद्वये दोषं विदधाति यतेस्ततः । स्थितिकल्पो मतः पूर्व चेलाविग्रंथमोचनः ।।११७७॥ उद्देशामर्शक सूत्रमाचेलष्यमिति स्थितम् । लप्तोऽयवादिशब्दोऽत्र तालप्रालम्बसूत्रयत् ॥११७८॥
बाह्य परिग्रह त्यागकी महत्ता बताते हैं
बहिरंग परिग्रह युक्त साधुके अंदरका मल अर्थात अंतरंग परिग्रहका शोधन करना अशक्य है अर्थात् बहिरंग परिग्रहके त्याग किये बिना अभ्यंतर परिग्रह कषायादि है उनका शोधन-दूर करना शक्य नहीं है । जैसे कि बाहरके तुषसे संयुक्त चावल के अंदरके मैलरूप लालिमाका शोधन करना लालिमाको दूर करना शक्य नहीं होता है ।।११७५।।
जब लोभको उदय उदीरणा होती है जब यह मेरा है ऐसा रागभाव तथा उपकरण आदिके देखनेसे परिग्रहको इच्छा होना रूप संज्ञा तथा परिग्रहमें तीव्र अभिलाषा होती है तब यह संसारी प्राणी परिग्रहको ग्रहण करनेको बुद्धि करता है ।।११७६।।
यह परिग्रह दोनों लोकोंमें मुनिके लिये दोष उत्पन्न करता है अर्थात परिग्नहके होनेपर उसका संरक्षण, संस्कार आदि करने पड़ते हैं उससे अशुभ भाव होते हैं यह इस लोकके दोष हुए तथा परलोकमें कुगतिमें जाना पड़ेगा यह परलोक संबंधो दोष हैं । ये दोष परिग्रह वालेके होते हैं अतः साधुजनोंके लिये सर्वप्रथम वस्त्र आदि परिग्रहका त्याग रूप पहला स्थिति कल्प कहा है अर्थात् साधुओंके दश प्रकारके स्थितिकल्प ( आचरण विशेष) बताये हैं उनमें पहला स्थिति कल्प आचेलक्य वस्त्र त्याग है ॥११७७॥
यहाँपर शंका होती है कि जब पहले स्थितिकल्पका नाम आचेलक्य है जिसका कि अर्थ वस्त्र त्याग है तो साधुओंको केवल वस्त्रका त्याग करना चाहिये अन्य परिग्रहके