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________________ ३३० | मर एक पिडका छंद द्र ुतविलंबित विपुल यौवननोरमनाकुलो विषय नीरनिधिरतिश्रधिकम् । इघूमकरैरथितस्तरति धन्यतमः परदुस्तरम् ॥ ११७१ इति ब्रह्मचर्यव्रतं । बाह्याभ्यंतरं संगं कृतकारितमोदनः । fara सदा साधो ! मनोवाक्कायकर्मभिः ।। ११७२ ।। मिथ्यात्यवेदहास्थादि क्रोध प्रभृतयोऽन्तराः । एक त्रिषट्चतुः संख्याः संगाः संति चतुर्दश ।। ११७३ ।। क्षेत्रं वास्तु धनं धान्यं द्विपदं च चतुष्पदम् । यानं शय्यासनं कुप्यं भांडं संगा बहिर्दश ।। ११७४।। धन्यतम है | कैसा है वह ? जो उक्त विषयरूपी समुद्रको पार करते समय स्त्री रूपी मगरोंसे पीड़ित नहीं हुआ है । भाव यह है कि युवा अवस्था में भी जिसे काम वासना नहीं सताती, जो स्त्रियोंके मोहमें नहीं फँसता निराकुल भावयुक्त हो अखण्ड ब्रह्मचर्यका पालन करता है वही पुरुष महान् है वही महामुनि श्रेष्ठ है धन्य है ।। ११७१ ।। इसप्रकार ब्रह्मचर्य व्रतका वर्णन समाप्त हुआ । पांचवें महाव्रतका वर्णन करते हैं हे साधो ! तुम बाह्य और अभ्यंतर दोनों परिग्रहोंका मन, वचन, काय और कृत कारित अनुमोदना द्वारा सदाके लिये त्याग कर दो ।। ११७२ ।। अभ्यंतर परिग्रह मिथ्यात्व एक वेद तीन स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद, हास्यादि छहहास्य, रति अरति, शोक, भय और जुगुप्सा, कषाय चार क्रोध मान, माया और लोभ ये अंतरंग चौदह परिग्रह हैं ||११७३|| बाह्य परिग्रह क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, द्विपद ( दो पैरवाले मनुष्य, दास दासो ) चतुष्पद ( चार पैरोंवाले, घोड़ा, बैल, गाय आदि ) यान - पालकी आदि सवारी, कुप्य - वस्त्रादि, भांड - हींग मिरच मसाले आदि इसप्रकार ये चौदह बाह्य परिग्रह हैं ।। ११७४।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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