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________________ २६६ मरण कण्डिका छंद-स्रग्विणीस्विद्यते खिद्यते तप्यते मुह्यते, याचते सेवते मोक्ते धावते । मुंचते गौरवं गाहते लाघवं, कि न मयों विधत्तं मनोजातुरः ।।६१५॥ पासने शयने स्थाने मगरे भवने वने । स्वजनेऽन्यजने कामी रमते नास्तचेतनः ॥१६॥ न रात्रौ न दिया शेते न भुक्ते न सुखायते । दष्टः कामभुजंगेन न जानाति हिताहिते ॥६१७॥ कामाकुलितचित्तस्य मुहर्ता वत्सरायते । सर्वदोत्कंठमानस्य भवन काननायते ॥१८॥ हस्तन्यस्तकपोलोऽसौ दोनो ध्यायति संततम् । प्रस्विधति तुषारेऽपि कंपते कारणं विना ॥१६॥ खेदित होता है, संताप करता है, मोहित होता है, याचना करता है, सेवा करता है, इष्ट स्त्रीके दिखनेपर हर्षित होता है, दौड़ता है, अपने जाति कुलादिके गौरवको छोड़ देता है, हीनताको प्राप्त होता है कामातुर हुआ मानव क्या-क्या नहीं करता ? सब कुछ अयोग्य कर डालता है ॥६१४६६१५।। कामके द्वारा नष्ट हो गयी चेतना जिसकी ऐसा कामी पुरुष आसनमें, शयन में, स्थानमें, नगरमें, भवनमें, वन में, स्वजनमें और परजन में कहीं भी नहीं रमता है ।।९१६।। न रातमें सोता है और न दिन में भोजन करता है न कहीं सुखका अनुभव करता है, कामरूपी सर्प द्वारा काटा गया पुरुष हित अहितको नहीं जानता है । काम वासनासे आकुलित चित्तवाले मनुष्यको एक मुहर्तकाल वर्ष जैसा लगता है सर्वदा उत्कंठित मनवाले उस पुरुषको सुदर महल बनके समान प्रतीत होता है ।।६१७।६१८।। यह कामी पुरुष सतत् अपनी इष्ट स्त्रीके हाथको कोलमें रखकर ध्यान करता है, उसे तुषार पड़नेपर भी अर्थात् शीतके समय भी पसीना आने लगता है और वह कारणके विना ही कांपने लगता है ।।९१९।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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