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________________ [ २६७ अनुशिष्टि महाधिकार परत्यग्निशिखाजालेवद्भिरनिवारितः । सोन्तविदह्यते पीतस्तप्तस्ताम्ररिव ॥२०॥ मंदायते मतिर्याति सद्यो वचनकौशलं । मयनेन ज्वरेणेव बाधितस्य वितापिना ॥२१॥ काम्यमानं जनं कामी यवा न लभते कुधीः । मुमूर्षति तदोद्विग्नो नगप्रपतनादिभिः ॥२२॥ संकल्पडिक जातेन विषयच्छिद्र वासिना । राग विजिह्वन वृद्धचितामहाकुधा ॥२३॥ दष्टकामभुजगेन लज्जानिर्मोकमोचिना । वर्षवंष्ट्राकरालेन रतिवक्त्रेण नश्यति ॥२४॥ कामी पुरुष जिसका निवारण अशक्य है ऐसे जाज्वल्यमान अरतिरूप अग्निके शिखाजाल द्वारा अन्तरमें जलता रहता है, मानो उसने तपाया हुआ तांबेका पिघला हुआ रस ही पो लिया हो । अर्थात् जैसे तांबेके पिघले खोलते हुए रसको पीनेसे अंदर में भयंकर दाह होती है वैसे कामरूपी अग्नि द्वारा पुरुषको अंदरमें भयंकर दाह होती है ।।२०।। कामीकी बुद्धि मंद हो जाती है, तत्काल ही बचन कौशल नष्ट हो जाता है, संतापकारक मदनके ज्वरसे पीड़ित हुए पुरुषको यह स्थिति होती है ॥४२१।। यह खोटी बुद्धिवाला कामी जब इच्छित स्त्री जनको प्राप्त नहीं कर पाता तब दुःखी हुआ पर्वतसे गिरना आदि क्रिया द्वारा मरना चाहता है ।।६२२।। जो संकल्प रूप अंडेसे पैदा हुआ है, विषयरूप वामीमें बिल में रहता है और बढती हई चितासे जो महाक्रोधित है ऐसे रागद्वेष रूप दो जीभवाले कामरूप सर्पद्वारा जो काटा जा चुका है, कैसा है यह कामसर्प ? लज्जारूपी कांचुली जिसने छोड़ दी है, दर्परूपी भयंकर जिसकी दाढ़ है और रतिरूप मुख है ऐसे कामवासना रूप कराल सर्पसे काटा हुआ पुरुष शीघ्र ही नष्ट हो जाता है ।।२३।६२४।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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