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मरकण्डिका
॥२५॥
श्राशीविषेण दष्टस्य सप्तवेगाः शरीरिणः । दष्टस्य स्मरसर्पेण जायंते दश दु:सहा शोचति प्रथमे देगे द्वितीये तां दिक्षते । तृतीये निश्वसित्युचैवंरस्तुयें प्रवर्तते बह्यते पंचमे गात्रं भक्त पठे न रोचते । प्रयाति सप्तमे मूर्च्छामुन्मत्तो जायतेऽष्टमे ।। ६२७ ।।
।।६२६॥
आशीविष सर्प द्वारा काटे हुए प्राणी के तो सात ही वेग होते हैं किन्तु कामरूपी सर्प द्वारा काटे हुए पुरुष के दश भयंकर वेंग हुआ करते हैं || २५ | १
भावार्थ - भयंकर विषैले सर्प या आशीविष नामके सर्पके काटनेपर उस विषाक्त पुरुषके शरीर पिके उदेक रूप वेगसन्दचाते हैं प्रथम वेगमें उस पुरुषका रक्त काला पीला हो जाता है, नेत्र मुख आदिमें कीड़े चल रहे हों ऐसा लगता है । दूसरे वेगमें शरीर में गांठें पड़ गयी हों ऐसा लगता है। तीसरे वेगमें मस्तक भारी होता है तथा नेत्र बंद करता है । चौथे वेग में थूकता है तथा उल्टी करता है, नींद आती है । पांचवें में दाह पैदा होती है, हिचकी आती है । छठे वेगमें हृदय पीड़ा होने लगती है शरीर भारी होता है मूर्च्छा आती है और सातवें वेग में पीठ कमर आदि भग्न होते हैं तथा शरीरको सर्वं चेष्टायें समाप्त हो जाती हैं ।
अब यहां पर कामके दश वेग बतलाते हैं-
किसी स्त्रीको देखकर पुरुष के मनमें काम वासना उत्पन्न होती है उसमें दश अवस्थायें होती हैं दश प्रकारको वेष्टायें वह कामी करने लग जाता है उन्हींको कामके दश वेग कहते हैं । पहले वेग में कामी शोकयुक्त होता है, दूसरे वेगमें उस इष्ट स्त्रोको देखनेकी इच्छा करता है । तोसरे वेगमें जोर-जोर से श्वास लेने लगता है। चौथे वेगमें ज्वर आ जाता है ।।९२६ ।। पांचवें बेगमें शरीर जलने लगता है । छठे वेगमें भोजन नहीं रुचता । सातवेंमें मूर्च्छा आती है । आठदेंमें पागल होता है ।। ६२७ ॥
नौवें वेगमें कुछ जान नहीं पाता है और दसवें में प्राणोंको छोड़ देता है । ये वेग संकल्प-वासना के अनुसार तीव्र या मंद हुआ करते हैं आशय यह है कि किसी कामो को मंद रूप किसी कामीको तीव्ररूप वेग होते हैं तथा किसोको एक या दो या तीन